एक माँ.... सचमुच कितनी ढीठ होती है। जीवन भर पिता और पुत्र की डाँट सुनती रहती है, फिर भी चुपचाप सब कुछ सह लेती है। पिता की झुंझलाहट में भी उसे परिवार दिखता है, पुत्र की बेरुखी में भी भविष्य। वह सोचती है-“चलो, सब ठीक है, मैं सह लूँगी थोड़ी सी कमज़ोरी अपने हिस्से में।”
एक माँ सचमुच कितनी ढीठ होती है, जीवन भर पिता की तुनकियों और पुत्र के तानों को झेलती है, फिर भी हर सुबह रसोई में पहली चाय उसी के हाथों से बनती है।
घर के कोनों में उसके आँसू सूख जाते हैं, पर मुस्कान नहीं सूखती। कभी थककर दरवाज़े तक जाती है, पर लौट आती है क्योंकि यह घर उसी की साँसों से बसा है।
किसी दिन मन करता है कि सब छोड़कर चली जाए... इस घर से, इस रसोई से, उन आवाज़ों से जो कभी उसके श्रम को पहचानती नहींं... पर वह जाती नहीं।
क्योंकि उसे पता है, उसके जाने से घर का चूल्हा ठंडा पड़ जाएगा, दीवारों की चमक फीकी पड़ जाएगी, और जीवन की गति कहीं रुक जाएगी।
पिता की झुँझलाहट को वह जिम्मेदारी समझती है, पुत्र की बेरुखी को बालपन की भूल। हर किसी के गुस्से में भी वह अपना स्नेह ढूँढ़ लेती है। दिनभर थकने के बाद भी जब सब सो जाते हैं, तब वह बर्तन समेटती है, अगले दिन के भोजन की योजना बनाती है और धीरे से सूने मंदिर में दीपक जला देती है।मानो अपने भीतर की थकान को भी उजाले से ढाँक रही हो।
कितनी अजीब है यह माँ! अपने हिस्से का सुख बाँटकर देती है, दुख छिपाकर पी जाती है। उसकी आँखों में जो नमी है, वह शिकायत नहीं, बल्कि अपनापन है। कभी-कभी वह सोचती भी है कि “अब बस!” लेकिन अगले ही पल फिर वही हँसी,वही परवाह लौट आती है। क्योंकि वह जानती है- घर उसकी उपस्थिति से ही घर है।
माँ सच में अजीब होती है... जिस घर में सबसे अधिक डाँट खाती है, उसी घर के लिए सबसे अधिक प्रार्थना करती है। जिसे सबसे कम सुना जाता है, वह सबसे ज़्यादा सबकी सुनती है।
माँ सच में ढीठ नहीं, बल्कि वह जीवन की सबसे कोमल और सबसे मजबूत कड़ी है... जो टूटकर भी बिखरती नहीं, बल्कि सबको जोड़कर रखती है।
कभी-कभी लगता है, माँ सच में ढीठ नहीं, बल्कि धैर्य की पराकाष्ठा होती है, जो टूटकर भी जुड़ जाती है, रूठकर भी रचती है, और घर छोड़कर भी घर की ही चिंता करती है। ❤️ #माँ
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एक माँ....
सचमुच कितनी ढीठ होती है।
जीवन भर पिता और पुत्र की
डाँट सुनती रहती है,
फिर भी चुपचाप सब कुछ सह लेती है।
पिता की झुंझलाहट में भी उसे परिवार दिखता है,
पुत्र की बेरुखी में भी भविष्य।
वह सोचती है-“चलो, सब ठीक है,
मैं सह लूँगी थोड़ी सी कमज़ोरी अपने हिस्से में।”
एक माँ सचमुच कितनी
ढीठ होती है,
जीवन भर पिता की तुनकियों और पुत्र के तानों को झेलती है,
फिर भी हर सुबह रसोई में पहली चाय उसी के हाथों से बनती है।
घर के कोनों में उसके
आँसू सूख जाते हैं,
पर मुस्कान नहीं सूखती।
कभी थककर दरवाज़े तक
जाती है,
पर लौट आती है क्योंकि यह घर उसी की साँसों से बसा है।
किसी दिन मन करता है कि सब छोड़कर चली जाए...
इस घर से, इस रसोई से,
उन आवाज़ों से
जो कभी उसके श्रम को
पहचानती नहींं...
पर वह जाती नहीं।
क्योंकि उसे पता है,
उसके जाने से घर का चूल्हा
ठंडा पड़ जाएगा,
दीवारों की चमक फीकी पड़ जाएगी, और जीवन की गति
कहीं रुक जाएगी।
पिता की झुँझलाहट को वह जिम्मेदारी समझती है,
पुत्र की बेरुखी को
बालपन की भूल।
हर किसी के गुस्से में भी वह अपना स्नेह ढूँढ़ लेती है।
दिनभर थकने के बाद भी
जब सब सो जाते हैं,
तब वह बर्तन समेटती है,
अगले दिन के भोजन की योजना बनाती है और धीरे से
सूने मंदिर में दीपक जला देती है।मानो अपने भीतर की थकान को भी उजाले से ढाँक रही हो।
कितनी अजीब है यह माँ!
अपने हिस्से का सुख
बाँटकर देती है,
दुख छिपाकर पी जाती है।
उसकी आँखों में जो नमी है,
वह शिकायत नहीं,
बल्कि अपनापन है।
कभी-कभी वह सोचती भी है
कि “अब बस!”
लेकिन अगले ही पल फिर वही हँसी,वही परवाह लौट आती है। क्योंकि वह जानती है-
घर उसकी उपस्थिति से ही घर है।
माँ सच में अजीब होती है...
जिस घर में सबसे अधिक डाँट खाती है,
उसी घर के लिए सबसे अधिक प्रार्थना करती है।
जिसे सबसे कम सुना जाता है,
वह सबसे ज़्यादा सबकी सुनती है।
माँ सच में ढीठ नहीं, बल्कि वह जीवन की सबसे कोमल और सबसे मजबूत कड़ी है...
जो टूटकर भी बिखरती नहीं, बल्कि सबको जोड़कर रखती है।
कभी-कभी लगता है,
माँ सच में ढीठ नहीं,
बल्कि धैर्य की पराकाष्ठा होती है,
जो टूटकर भी जुड़ जाती है,
रूठकर भी रचती है,
और घर छोड़कर भी घर की ही चिंता करती है। ❤️ #माँ
1 month ago | [YT] | 6