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अक्षय (आंवला) नवमी
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कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी अक्षय एवं आंवला नवमी के नाम से मनाई जाती है. इस दिन भगवान विष्णु का पूजन होता है और आंवले के वृक्ष की पूजा भी की जाती है. स्नान, दान, व्रत-पूजा का विधान रहता है. यह संतान प्रदान करने वाली ओर सुख समृद्धि को बढ़ाने वाली नवमी होती है।
भारतीय सनातन धर्म में पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए महिलाओं द्वारा आँवला नवमी की पूजा को महत्वपूर्ण माना गया है। इस वर्ष कार्तिक शुक्ल नवमी दिनांक 31 अक्टूबर शुक्रवार को ‘अक्षय नवमी’ तथा ‘आँवला नवमी’ है। कहा जाता है कि यह पूजा व्यक्ति के समस्त पापों को दूर कर पुण्य फलदायी होती है। जिसके चलते कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को महिलाएं आँवले के पेड़ की विधि-विधान से पूजा-अर्चना कर अपनी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए प्रार्थना करती हैं। अक्षय नवमी को जप, दान, तर्पण, स्नानादि का अक्षय फल होता है । आँवला नवमी को अक्षय नवमी के रूप में भी जाना जाता है। इस दिन द्वापर युग का प्रारंभ हुआ था। कहा जाता है कि आंवला भगवान विष्णु का पसंदीदा फल है। आंवले के वृक्ष में समस्त देवी-देवताओं का निवास होता है। इसलिए इस दिन आँवले के वृक्ष के पूजन का विशेष महत्व है।
अक्षय नवमी के दिन आंवला वृक्ष के नीचे भोजन बनाकर खाने का भी विशेष महत्व है। यदि आंवला वृक्ष के नीचे भोजन बनाने में असुविधा हो तो घर में भोजन बनाकर आंवला के वृक्ष के नीचे जाकर पूजन करने के पश्चात् भोजन करना चाहिए। भोजन में सुविधानुसार खीर , पूड़ी या मिष्ठान्न हो सकता है।
इस दिन पानी में आंवले का रस मिलाकर स्नान करने की परंपरा भी है। ऐसा करने से हमारे आसपास से नकारात्मक ऊर्जा खत्म होती है, सकारात्मक ऊर्जा और पवित्रता बढ़ती है, साथ ही ये त्वचा के लिए भी बहुत फायदेमंद है। आंवले के रस के सेवन से त्वचा की चमक भी बढ़ती है।
पूजा विधान
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प्रातः काल स्नानादि के अनन्तर दाहिने हाथ में जल, अक्षत्, पुष्प आदि लेकर निम्न प्रकार से व्रत का संकल्प करें -
'अद्येत्यादि अमुकगोत्रोsमुक शर्माहं(वर्मा, गुप्तो, वा) ममाखिलपापक्षयपूर्वकधर्मार्थकाममोक्षसिद्धिद्वारा श्रीविष्णुप्रीत्यर्थं धात्रीमूले विष्णुपूजनं धात्रीपूजनं च करिष्ये'
ऐसा संकल्प कर धात्री वृक्ष (आंवला) के नीचे पूरब की ओर मुखकर बैठें और
'ऊँ धात्र्यै नम:'
मंत्र से आवाहनादि षोडशोपचार पूजन करके निम्नलिखित मन्त्रों से आंवले के वृक्ष की जड़ में दूध की धारा गिराते हुए पितरों का तर्पण करें।
मंत्र
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पिता पितामहाश्चान्ये अपुत्रा ये च गोत्रिण:।
ते पिबन्तु मया द्त्तं धात्रीमूलेSक्षयं पय:।।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवर्षिपितृमानवा:।
ते पिबन्तु मया द्त्तं धात्रीमूलेSक्षयं पय:।।
इसके बाद आंवले के वृक्ष के तने में निम्न मंत्र से सूत्र लपेटें-
दामोदरनिवासायै धात्र्यै देव्यै नमो नम:।
सूत्रेणानेन बध्नामि धात्रि देवि नमोSस्तु ते।।
इसके बाद वृक्ष की जड़ों को दूध से सींच कर उसके तने पर कच्चे सूत का धागा लपेटना चाहिए। तत्पश्चात रोली, चावल, धूप दीप से वृक्ष की पूजा करें। और आँवले के वृक्ष की 108 परिक्रमाएं करने के बाद कपूर या घी के दीपक से आंवले के वृक्ष की आरती करें तथा निम्न मंत्र से उसकी प्रदक्षिणा करें-
यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च।
तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणपदे पदे।।
इसके बाद आंवले के वृक्ष के नीचे ब्राह्मण भोजन भी कराना चाहिए और अन्त मे स्वयं भी आंवले के वृक्ष के सन्निकट बैठकर भोजन करें। एक पका हुआ कोंहड़ा (कूष्माण्ड) लेकर उसके अंदर रत्न, सुवर्ण, रजत या रुपया आदि रखकर निम्न संकल्प करें-
'ममाखिलपापक्षयपूर्वकसुखसौभाग्यादीनामुत्तरोत्तराभिवद्धये कूष्माण्डदानमहं करिष्ये'
आज ही विष्णु भगवान ने कुष्माण्डक दैत्य को मारा था और उसके रोम से कुष्माण्ड की बेल उत्पन्न हुई। इसी कारण आज के दिन कुष्माण्ड का दान करने से उत्तम फल मिलता है। इसलिये इसके बाद विद्वान तथा सदाचारी ब्राह्मण को तिलक करके दक्षिणा सहित कूष्माण्ड दे दें और निम्न प्रार्थना करें-
कूष्माण्डं बहुबीजाढ्यं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा।
दास्यामि विष्णवे तुभ्यं पितृणां तारणाय च।।
पितरों के शीतनिवारण के लिए यथा शक्ति कम्बल आदि ऊर्णवस्त्र भी सत्पात्र ब्राह्मण को देना चाहिये।
यह अक्षय नवमी 'धात्रीनवमी' तथा 'कूष्माण्ड नवमी' भी कहलाती है। घर में आंवले का वृक्ष न हो तो किसी बगीचे आदि में आंवले के वृक्ष के समीप जाकर पूजा दान आदि करने की परम्परा है अथवा गमले में आंवले का पौधा रोपित कर घर मे यह कार्य सम्पन्न कर लेना चाहिए।
आंवला नवमी की प्रचलित कथा
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काशी नगर में एक निःसंतान धर्मात्मा और दानी वैश्य रहता था। एक दिन वैश्य की पत्नी से एक पड़ोसन बोली यदि तुम किसी पराए बच्चे की बलि भैरव के नाम से चढ़ा दो तो तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा। यह बात जब वैश्य को पता चली तो उसने मना कर दिया लेकिन उसकी पत्नी मौके की तलाश में लगी रही। एक दिन एक कन्या को उसने कुएं में गिराकर भैरो देवता के नाम पर बलि दे दी। इस हत्या का परिणाम विपरीत हुआ। लाभ की जगह उसके पूरे बदन में कोढ़ हो गया और लड़की की प्रेतात्मा उसे सताने लगी। वैश्य के पूछने पर उसकी पत्नी ने सारी बात बता दी। इस पर वैश्य कहने लगा गौवध, ब्राह्मण वध तथा बाल वध करने वाले के लिए इस संसार में कहीं जगह नहीं है, इसलिए तू गंगातट पर जाकर भगवान का भजन कर गंगा स्नान कर तभी तू इस कष्ट से छुटकारा पा सकती है।
वैश्य की पत्नी गंगा किनारे रहने लगी। कुछ दिन बाद गंगा माता वृद्ध महिला का वेष धारण कर उसके पास आयीं और बोलीं यदि ‘तुम मथुरा जाकर कार्तिक नवमी का व्रत तथा आंवला वृक्ष की परिक्रमा और पूजा करोगी तो ऐसा करने से तेरा यह कोढ़ दूर हो जाएगा।’ वृद्ध महिला की बात मानकर वैश्य की पत्नी अपने पति से आज्ञा लेकर मथुरा जाकर विधिपूर्वक आंवला का व्रत करने लगी। ऐसा करने से वह भगवान की कृपा से दिव्य शरीर वाली हो गई तथा उसे पुत्र की प्राप्ति भी हुई।
अक्षय आंवला नवमी मुहूर्त
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अक्षय नवमी पूर्वाह्न का समय- 31 अक्टूबर प्रातः 06:33 से प्रातः 10:01 तक रहेगा।
नवमी तिथि प्रारम्भ- 30 अक्टूबर प्रातः 10:05 से।
नवमी तिथि समाप्त- 31 अक्टूबर रात्रि 10:01 पर।
ब्रह्मावैवर्तपुराण के वचन के अनुसार, अष्टमी विद्धा नवमी ग्रहण करना चाहिये। दशमी विद्धा नवमी त्याज्य है।
अक्षय नवमी पर जीवन की कठिनाइयों में कमी लाने के उपाय
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👉 अक्षय नवमी के दिन दक्षिणावर्ती शंख में जल भरकर भगवान विष्णु का अभिषेक करें। इस उपाय को करने से देवी लक्ष्मी अत्यंत प्रसन्न हो घर में सदा के लिए वास करती है।
👉 अक्षय नवमी के दिन अपने स्नान करने के लिए गए जल में आवंला के रस की कुछ बूंदे डालें। ऐसा करने से घर की नकारात्मक ऊर्जा तो जाएगी ही साथ ही माता लक्ष्मी भी घर में विराजमान होंगी।
👉 अक्षय नवमी के दिन शाम के समय घर के ईशान कोण में घी का दीपक प्रज्जवलित करें। बत्ती में रुई के स्थान पर लाल रंग के धागे का उपयोग करें। संभव हो तो दीपक में केसर भी डाल दें। इससे देवी जल्द प्रसन्न हो कृपा करेंगी।
👉 5 कुंवारी कन्याओं को घर बुलाकर खीर खिलाएं। सभी कन्याओं को पीला वस्त्र व दक्षिणा देकर विदा करें। इससे माता लक्ष्मी जी बहुत प्रसन्न होती हैं। अपने भक्तों पर कृपा बरसाती है।
👉 किसी लंगड़े व्यक्ति को काले वस्त्र और मिठाई दान करें। इस दिन दान देने से देवी दानी के घर में वास करती है। साथ ही उसे अचल सम्पत्ति का वरदान भी देती है।
👉 श्रीयंत्र का गाय के दूध के अभिषेक करें। अभिषेक का जल की छींटे पूरे घर में करें। श्रीयंत्र पर कमलगट्टे के साथ तिजोरी में पर रख दें। इससे अवश्य धन लाभ होता है।
👉 श्यामा गाय की सेवा कर उन्हें हरा चारा खिलाएं। मान्यता है कि गौ माता में सभी देवी- देवताओं का वास होता है इसलिए उनकी सेवा करने से देवी जल्द ही प्रसन्न होती है। और घर में धन वर्षा करती है।
👉 अगर आपकी कुंडली में शनि दोष है तो अक्षय नवमी के दिन से आरंभ कर 41 दिन लगातार लाल मसूर की दाल की कच्ची रोटी बनाकर मछलियों को खिलाएं इससे मंगल ग्रह मजबूत होता है कर्ज अथवा भूमि जायदाद संबंधित समस्या में कमी आती है साथ ही माता महालक्ष्मी की कृपा भी बरसती है।
👉 मंगल ग्रह शांति के लिए ब्राह्मणों एवं गरीबों को गुड़ मिश्रित दूध या चावल खिलाएं।
👉 नवमी तिथि की स्वामी देवी दुर्गा हैं ऎसे में जातक को दुर्गा की उपासना अवश्य करनी चाहिए. जीवन में यदि कोई संकट है अथवा किसी प्रकार की अड़चनें आने से काम नही हो पा रहा है तो जातक को चाहिए की दुर्गा सप्तशती के पाठ को करे और मां दुर्गा से अपने जीवन में आने वाले संकटों को हरने की प्रार्थना करे।
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कार्तिक में दीपदान
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इन पाँच दिन जरूर जरूर करें दीपदान
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महापुण्यदायक तथा मोक्षदायक कार्तिक के मुख्य नियमों में सबसे प्रमुख नियम है दीपदान। दीपदान का अर्थ होता है आस्था के साथ दीपक प्रज्वलित करना। कार्तिक में प्रत्येक दिन दीपदान जरूर करना चाहिए।
दीपदान कैसे करें
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मिट्टी, ताँबा, चाँदी, पीतल अथवा सोने के दीपक लें। उनको अच्छे से साफ़ कर लें। मिटटी के दीपक को कुछ घंटों के लिए पानी में भिगो कर सुखा लें। उसके पश्च्यात प्रदोषकाल में अथवा सूर्यास्त के बाद उचित समय मिलने पर दीपक, तेल, गाय घी, बत्ती, चावल अथवा गेहूँ लेकर मंदिर जाएँ। घी में रुई की बत्ती तथा तेल के दीपक में लाल धागे या कलावा की बत्ती इस्तेमाल कर सकते हैं। दीपक रखने से पहले उसको चावल अथवा गेहूं अथवा सप्तधान्य का आसन दें। दीपक को भूल कर भी सीधा पृथ्वी पर न रखें क्योंकि कालिका पुराण का कथन है।
"दातव्यो न तु भूमौ कदाचन।
सर्वसहा वसुमती सहते न त्विदं द्वयम्।।
अकार्यपादघातं च दीपतापं तथैव च।
तस्माद् यथा तु पृथ्वी तापं नाप्नोति वै तथा।।"
अर्थात👉 सब कुछ सहने वाली पृथ्वी को अकारण किया गया पदाघात और दीपक का ताप सहन नही होता।
उसके बाद एक तेल का दीपक शिवलिंग के समक्ष रखें और दूसरा गाय के घी का दीपक श्रीहरि नारायण के समक्ष रखें। उसके बाद दीपक मंत्र पढ़ते हुए दोनों दीप प्रज्वलित करें। दीपक को प्रणाम करें। दारिद्रदहन शिवस्तोत्र तथा गजेन्द्रमोक्ष का पाठ करें।
पुराणों में वर्णन मिलता है।
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"हरिजागरणं प्रातःस्नानं तुलसिसेवनम्।
उद्यापनं दीपदानं व्रतान्येतानि कार्तिके।।“
पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय –११५
“ स्नानं च दीपदानं च तुलसीवनपालनम्।
भूमिशय्या ब्रह्मचर्य्यं तथा द्विदलवर्जनम्।।
विष्णुसंकीर्तनं सत्यं पुराणश्रवणं तथा।
कार्तिके मासि कुर्वंति जीवन्मुक्तास्त एव हि।।”
स्कन्दपुराण, वैष्णवखण्ड, कार्तिकमासमाहात्म्यम, अध्याय 03
पद्मपुराण उत्तरखंड, अध्याय 121 में कार्तिक में दीपदान की तुलना अश्वमेघ यज्ञ से की है।
"घृतेन दीपको यस्य तिलतैलेन वा पुनः।
ज्वलते यस्य सेनानीरश्वमेधेन तस्य किम्।।"
अर्थात 👉 कार्तिक में घी अथवा तिल के तेल से जिसका दीपक जलता रहता है, उसे अश्वमेघ यज्ञ से क्या लेना है।
अग्निपुराण के 200वें अध्याय के अनुसार
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"दीपदानात्परं नास्ति न भूतं न भविष्यति"
अर्थात 👉 दीपदान से बढ़कर न कोई व्रत है, न था और न होगा ही।
स्कंदपुराण, वैष्णवखण्ड के अनुसार
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"सूर्यग्रहे कुरुक्षेत्रे नर्मदायां शशिग्रहे।।
तुलादानस्य यत्पुण्यं तदत्र दीपदानतः।।"
अर्थात 👉 कुरुक्षेत्र में सूर्यग्रहण के समय और नर्मदा में चन्द्रग्रहण के समय अपने वजन के बराबर स्वर्ण के तुलादान करने का जो पुण्य है वह केवल दीपदान से मिल जाता है।
कार्तिक में दीपदान का एक मुख्य उद्देश्य पितरों का मार्ग प्रशस्त करना भी है।
"तुला संस्थे सहस्त्राशौ प्रदोषे भूतदर्शयोः
उल्का हस्ता नराः कुर्युः पितृणाम् मार्ग दर्शनम्।।"
पितरों के निमित्त दीपदान जरूर करें।
पद्मपुराण, उत्तरखंड, अध्याय 123 में महादेव कार्तिक में दीपदान का माहात्म्य सुनाते हुए अपने पुत्र कार्तिकेय से कहते हैं।
"शृणु दीपस्य माहात्म्यं कार्तिके शिखिवाहन।
पितरश्चैव वांच्छंति सदा पितृगणैर्वृताः।।
भविष्यति कुलेऽस्माकं पितृभक्तः सुपुत्रकः।
कार्तिके दीपदानेन यस्तोषयति केशवम्।।"
अर्थात 👉 “मनुष्य के पितर अन्य पितृगणों के साथ सदा इस बात की अभिलाषा करते हैं कि क्या हमारे कुल में भी कोई ऐसा उत्तम पितृभक्त पुत्र उत्पन्न होगा, जो कार्तिक में दीपदान करके श्रीकेशव को संतुष्ट कर सके।"
दीपदान कहाँ करें
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देवालय (मंदिर) में, गौशाला में, वृक्ष के नीचे, तुलसी के समक्ष, नदी के तट पर, सड़क पर, चौराहे पर, ब्राह्मण के घर में, अपने घर में।
अग्निपुराण के 200वे अध्याय के अनुसार
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"देवद्विजातिकगृहे दीपदोऽब्दं स सर्वभाक्"
जो मनुष्य देवमन्दिर अथवा ब्राह्मण के गृह में दीपदान करता है, वह सबकुछ प्राप्त कर लेता है। पद्मपुराण के अनुसार मंदिरों में और नदी के किनारे दीपदान करने से लक्ष्मी जी प्रसन्न होती हैं। दुर्गम स्थान अथवा भूमि पर दीपदान करने से व्यक्ति नरक जाने से बच जाता है।
जो देवालय में, नदी के किनारे, सड़क पर दीप देता है, उसे सर्वतोमुखी लक्ष्मी प्राप्त होती है। कार्तिक में प्रतिदिन दो दीपक जरूर जलाएं। एक श्रीहरि नारायण के समक्ष तथा दूसरा शिवलिंग के समक्ष।
पद्मपुराण के अनुसार
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"तेनेष्टं क्रतुभिः सर्वैः कृतं तीर्थावगाहनम्।
दीपदानं कृतं येन कार्तिके केशवाग्रतः।।"
अर्थात👉 जिसने कार्तिक में भगवान् केशव के समक्ष दीपदान किया है, उसने सम्पूर्ण यज्ञों का अनुष्ठान कर लिया और समस्त तीर्थों में गोता लगा लिया।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है जो कार्तिक में श्रीहरि को घी का दीप देता है, वह जितने पल दीपक जलता है, उतने वर्षों तक हरिधाम में आनन्द भोगता है। फिर अपनी योनि में आकर विष्णुभक्ति पाता है; महाधनवान नेत्र की ज्योति से युक्त तथा दीप्तिमान होता है।
स्कन्दपुराण माहेश्वरखण्ड-केदारखण्ड के अनुसार
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"ये दीपमालां कुर्वंति कार्तिक्यां श्रद्धयान्विताः॥
यावत्कालं प्रज्वलंति दीपास्ते लिंगमग्रतः॥
तावद्युगसहस्राणि दाता स्वर्गे महीयते॥"
अर्थात 👉 जो कार्तिक मास की रात्रि में श्रद्धापूर्वक शिवजी के समीप दीपमाला समर्पित करता है, उसके चढ़ाये गए वे दीप शिवलिंग के सामने जितने समय तक जलते हैं, उतने हजार युगों तक दाता स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है।
लिंगपुराण के अनुसार
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"कार्तिके मासि यो दद्याद्धृतदीपं शिवाग्रतः।
संपूज्यमानं वा पश्येद्विधिना परमेश्वरम्।।"
अर्थात 👉 जो कार्तिक महिने में शिवजी के सामने घृत का दीपक समर्पित करता है अथवा विधान के साथ पूजित होते हुए परमेश्वर का दर्शन श्रद्धापूर्वक करता है, वह ब्रह्मलोक को जाता है।
"यो दद्याद्धृतदीपं च सकृल्लिंगस्य चाग्रतः।
स तां गतिमवाप्नोति स्वाश्रमैर्दुर्लभां रिथराम्।।"
अर्थात 👉 जो शिव के समक्ष एक बार भी घृत का दीपक अर्पित करता है, वह वर्णाश्रमी लोगों के लिये दुर्लभ स्थिर गति प्राप्त करता है।
"आयसं ताम्रजं वापि रौप्यं सौवर्णिकं तथा।
शिवाय दीपं यो दद्याद्विधिना वापि भक्तितः।।
सूर्यायुतसमैः श्लक्ष्णैर्यानैः शिवपुरं व्रजेत्।।"
अर्थात 👉 जो विधान के अनुसार भक्तिपूर्वक लोहे, ताँबे, चाँदी अथवा सोने का बना हुआ दीपक शिव को समर्पित है, वह दस हजार सूर्यों के सामान देदीप्यमान विमानों से शिवलोक को जाता है।
अग्निपुराण के 200वे अध्याय के अनुसार
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👉जो मनुष्य देवमन्दिर अथवा ब्राह्मण के गृह में एक वर्ष दीपदान करता है, वह सबकुछ प्राप्त कर लेता है।
👉 कार्तिक में दीपदान करने वाला स्वर्गलोक को प्राप्त होता है।
👉 दीपदान से बढ़कर न कोई व्रत है, न था और न होगा ही।
👉 दीपदान से आयु और नेत्रज्योति की प्राप्ति होती है।
👉 दीपदान से धन और पुत्रादि की प्राप्ति होती है।
👉 दीपदान करने वाला सौभाग्ययुक्त होकर स्वर्गलोक में देवताओं द्वारा पूजित होता है।
👉 एकादशी को दीपदान करने वाला स्वर्गलोक में विमान पर आरूढ़ होकर प्रमुदित होता है।
पाँच दिन जरूर जरूर करें दीपदान
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अगर किसी विशेष कारण से कार्तिक में प्रत्येक दिन आप दीपदान करने में असमर्थ हैं तो पांच विशेष दिन जरूर करें।
पद्मपुराण, उत्तरखंड में स्वयं महादेव कार्तिकेय को दीपावली, कार्तिक कृष्णपक्ष के पाँच दिन में दीपदान का विशेष महत्व बताते हैं:
"कृष्णपक्षे विशेषेण पुत्र पंचदिनानि च
पुण्यानि तेषु यो दत्ते दीपं सोऽक्षयमाप्नुयात्"
अर्थात 👉 बेटा! विशेषतः कृष्णपक्ष में 5 दिन ( रमा एकादशी से दीपावली तक ) बड़े पवित्र हैं। उनमें जो भी दान किया जाता है, वह सब अक्षय और सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला होता है।
"तस्माद्दीपाः प्रदातव्या रात्रावस्तमते रवौ
गृहेषु सर्वगोष्ठेषु सर्वेष्वायतनेषु च
देवालयेषु देवानां श्मशानेषु सरस्सु च
घृतादिना शुभार्थाय यावत्पंचदिनानि च
पापिनः पितरो ये च लुप्तपिंडोदकक्रियाः
तेपि यांति परां मुक्तिं दीपदानस्य पुण्यतः"
रात्रि में सूर्यास्त हो जाने पर घर में, गौशाला में, देववृक्ष के नीचे तथा मन्दिरों में दीपक जलाकर रखना चाहिए। देवताओं के मंदिरों में, शमशान में और नदियों के तट पर भी अपने कल्याण के लिए घृत आदि से पाँच दिनों तक दीप जलाने चाहिए। ऐसा करने से जिनके श्राद्ध और तर्पण नहीं हुए हैं, वे पापी पितर भी दीपदान के पुण्य से परम मोक्ष को प्राप्त होते हैं।
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. “छठ पूजा”
छठ हिन्दू त्यौहार है जो हर साल लोगों द्वारा बहुत उत्सुकता के साथ मनाया जाता है। ये हिन्दू धर्म का बहुत प्राचीन त्यौहार है, जो ऊर्जा के परमेश्वर के लिए समर्पित है जिन्हें सूर्य या सूर्य षष्ठी के रूप में भी जाना जाता है। लोग पृथ्वी पर हमेशा के लिये जीवन का आशीर्वाद पाने के लिए भगवान सूर्य को धन्यवाद देने के लिये ये त्यौहार मनाते हैं। लोग बहुत उत्साह से भगवान सूर्य की पूजा करते हैं और अपने परिवार के सदस्यों, दोस्तों और बुजुर्गों के अच्छे के लिये सफलता और प्रगति के लिए प्रार्थना करते हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार सूर्य की पूजा कुछ श्रेणी रोगों के इलाज से सम्बन्धित है जैसे कुष्ठ रोग आदि।
इस दिन जल्दी उठकर पवित्र गंगा में नहाकर पूरे दिन उपवास रखने का रिवाज है, यहाँ तक कि वो पानी भी नहीं पीते और एक लम्बे समय तक पानी में खड़े रहते हैं। वो उगते हुये सूर्य को प्रसाद और अर्घ्य देते हैं। ये भारत के विभिन्न राज्यों में मनाया जाता है, जैसे: बिहार, यू.पी., झारखण्ड और नेपाल। हिन्दू कलैण्डर के अनुसार, ये कार्तिक महीने में अमावस्या के बाद (अक्टूबर या नवम्बर महीने में) छठे दिन मनाया जाता है।
कुछ स्थानों पर चैत्री छठ चैत्र के महीने (मार्च और अप्रैल) में होली के कुछ दिन बाद मनाया जाता है। इसका नाम छठ इसलिये पड़ा क्योंकि ये कार्तिक महीने की शुक्ल षष्ठी के दिन मनाया जाता है। छठ पूजा देहरी-ओन-सोने, पटना, देव और गया में बहुत प्रसिद्ध है। अब ये पूरे भारत में मनाया जाने लगा है।
“इतिहास”
छठ पूजा हिन्दू धर्म में बहुत महत्व रखती है और ऐसी धारणा है कि राजा द्वारा पुराने पुरोहितों से आने और भगवान सूर्य की परम्परागत पूजा करने के लिये अनुरोध किया गया था। उन्होनें प्राचीन ऋगवेद से मन्त्रों और स्त्रोतों का पाठ करके सूर्य भगवान की पूजा की।
प्राचीन छठ पूजा हस्तिनापुर (नई दिल्ली) के पाण्डवों और द्रौपदी के द्वारा अपनी समस्याओं को हल करने और अपने राज्य को वापस पाने के लिये की गयी थी।
ये भी माना जाता है कि छठ पूजा सूर्य पुत्र कर्ण के द्वारा शुरु की गयी थी। वो महाभारत युद्ध के दौरान महान योद्धा था और अंगदेश का शासक था
छठ पूजा के दिन छठी मैया (भगवान सूर्य की पत्नी) की भी पूजा की जाती है, छठी मैया को वेदों में ऊषा के नाम से भी जाना जाता है। ऊषा का अर्थ है सुबह (दिन की पहली किरण)। लोग अपनी परेशानियों को दूर करने के साथ ही साथ मोक्ष या मुक्ति पाने के लिए छठी मैया से प्रार्थना करते हैं।
छठ पूजा मनाने के पीछे दूसरी ऐतिहासिक कथा भगवान राम की है। यह माना जाता है कि 14 वर्ष के वनवास के बाद जब भगवान राम और माता सीता ने अयोध्या वापस आकर राज्यभिषेक के दौरान उपवास रखकर कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष में भगवान सूर्य की पूजा की थी। उसी समय से, छठ पूजा हिन्दू धर्म का महत्वपूर्ण और परम्परागत त्यौहार बन गया और लोगों ने उसी तिथि को हर साल मनाना शुरु कर दिया।
“कथा”
बहुत समय पहले, एक राजा था जिसका नाम प्रियव्रत था और उसकी पत्नी मालिनी थी। वे बहुत खुशी से रहते थे किन्तु इनके जीवन में एक बहुत बचा दुःख था कि इनके कोई सन्तान नहीं थी। उन्होंने महर्षि कश्यप की मदद से सन्तान प्राप्ति के आशीर्वाद के लिये बहुत बडा यज्ञ करने का निश्चय किया।
यज्ञ के प्रभाव के कारण उनकी पत्नी गर्भवती हो गयी। किन्तु 9 महीने के बाद उन्होंने मरे हुये बच्चे को जन्म दिया। राजा बहुत दुःखी हुआ और उसने आत्महत्या करने का निश्चय किया। अचानक आत्महत्या करने के दौरान उसके सामने एक देवी प्रकट हुयी।
देवी ने कहा–‘मैं देवी छठी हूँ और जो भी कोई मेरी पूजा शुद्ध मन और आत्मा से करता है वह सन्तान अवश्य प्राप्त करता है।’ राजा प्रियव्रत ने वैसा ही किया और उसे देवी के आशीर्वाद स्वरूप सुन्दर और प्यारी सन्तान की प्राप्ति हुई। तभी से लोगों ने छठ पूजा को मनाना शुरु कर दिया।
“तैयारी”
छठ की पूजा में एक-एक विधि-विधान को महत्व दिया गया है। इन विधि-विधानों में पूजन सामग्री विशेष महत्व है साथ ही इन सामग्री के बिना छठ पूजा अधूरा माना गया है। छठ पूजा के लिए जो पूजन सामग्री महवपूर्ण है इसका पूरा लिस्ट इस प्रकार है–
बाँस या पितल की सूप, बाँस के फट्टे से बने दौरा, डलिया और डगरा, पानी वाला नारियल, गन्ना जिसमें पत्ता लगा हो, सुथनी, शकरकन्दी, हल्दी और अदरक का पौधा (हरा हो तो अच्छा), नाशपाती, नींबू बड़ा, शहद की डिब्बी, पान और साबूत सुपारी, कैराव, सिन्दूर, कपूर, कुमकुम, चावल (अक्षत), चन्दन, मिठाई।
इसके अतिरिक्त घर में बने हुए पकवान जैसे ठेकुवा, खस्ता, पुवा, जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहते हैं, इसके अलावा चावल के लड्डू, जिसे लड़ुआ भी कहा जाता है, इत्यादि छठ पूजन के सामग्री में शामिल हैं।
“परम्परा”
यह माना जाता है कि छठ पूजा करने वाला व्यक्ति पवित्र स्नान लेने के बाद संयम की अवधि के 4 दिनों तक अपने मुख्य परिवार से अलग हो जाता है।
इस पूरे समय वह शुद्ध भावना के साथ एक कम्बल के साथ फर्श पर सोता है। सामान्यतः यह माना जाता है कि यदि एक बार किसी परिवार नें छठ पूजा शुरू कर दी तो उन्हें और उनकी अगली पीढी को भी इस पूजा को प्रतिवर्ष करना पडेगा और इसे तभी छोडा जा सकता है जब उस वर्ष परिवार में किसी की मृत्यु हो गयी हो।
भक्त छठ पर मिठाई, खीर, थेकुआ और फल सहित छोटी बाँस की टोकरी में सूर्य को प्रसाद अर्पण करते है। प्रसाद शुद्धता बनाये रखने के लिये बिना नमक, प्याज और लहसुन के तैयार किया जाता है। यह 4 दिन का त्यौहार है जो शामिल करता है :-
पहले दिन भक्त जल्दी सुबह गंगा के पवित्र जल में स्नान करते हैं और अपने घर प्रसाद तैयार करने के लिये कुछ जल घर भी लेकर आते हैं। इस दिन घर और घर के आसपास साफ-सफाई होनी चाहिये। वे एक समय का खाना लेते हैं, जिसे कद्दू-भात के रूप में जाना जाता है जो केवल मिट्टी के स्टोव (चूल्हे) पर आम की लकडियों का प्रयोग करके ताँबे या मिट्टी के बर्तन में बनाया जाता है।
दूसरे दिन (छठ से एक दिन पहले) पंचमी को, भक्त पूरे दिन उपवास रखते हैं और शाम को पृथ्वी (धरती) की पूजा के बाद सूर्य अस्त के बाद व्रत खोलते हैं। वे पूजा में खीर, पूरी, और फल अर्पित करते हैं। शाम को खाना खाने के बाद, वे बिना पानी पियें 36 घण्टे का उपवास रखते हैं।
तीसरे दिन (छठ वाले दिन) वे नदी के किनारे घाट पर संध्या अर्घ्य देते हैं। अर्घ्य देने के बाद व्रती स्त्रियाँ पीले रंग की साडी पहनती हैं। परिवार के अन्य सदस्य पूजा से आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए प्रतिक्षा करते हैं।
छठ की रात नदी पर पाँच गन्नों से कवर मिट्टी के दीये जलाकर पारम्परिक कार्यक्रम मनाया जाता है। पाँच गन्ने पंचतत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) को प्रर्दशित करते हैं जिससे मानव शरीर का निर्माण करते हैं।
चौथे दिन की सुबह, भक्त अपने परिवार और मित्रों के साथ गंगा नदी के किनारे बिहानिया अर्घ्य अर्पित करते है। भक्त छठ प्रसाद खाकर व्रत खोलते है।
“महत्व”
छठ पूजा का सूर्योदय और सूर्यास्त के दौरान एक विशेष महत्व है। सूर्योदय और सूर्यास्त का समय दिन का सबसे महत्वपूर्ण समय है जिसके दौरान एक मानव शरीर को सुरक्षित रूप से बिना किसी नुकसान के सौर ऊर्जा प्राप्त हो सकती हैं। यही कारण है कि छठ महोत्सव में सूर्य को संध्या अर्घ्य और विहानिया अर्घ्य देने की प्रथा है।
इस समय सौर ऊर्जा में पराबैंगनी विकिरण का स्तर कम होता है तो यह मानव शरीर के लिए सुरक्षित है। लोग पृथ्वी पर जीवन को जारी रखने के साथ-साथ आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए भगवान सूर्य का धन्यवाद करने के लिये छठ पूजा करते हैं।।
छठ पूजा का अनुष्ठान, (शरीर और मन शुद्धिकरण द्वारा) मानसिक शान्ति प्रदान करता है, ऊर्जा का स्तर और प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है, जलन क्रोध की आवृत्ति, साथ ही नकारात्मक भावनाओं को बहुत कम कर देता है। यह भी माना जाता है कि छठ पूजा प्रक्रिया के उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा करने में मदद करता है। इस तरह की मान्यताएँ और रीति-रिवाज छठ अनुष्ठान को हिन्दू धर्म में सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार बनाते हैं।
“वर्ष 2025 में छठ पूजा की तारीख”
(सूर्योदय/सूर्यास्त समय-दिल्ली)
छठ पूजा की शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी तिथि से होती है। यह छठ पूजा का पहला दिन होता है, इस दिन नहाय खाय होता है। इस वर्ष नहाय-खाय 25 अक्टूबर (शनिवार) को है। इस दिन सूर्योदय सुबह 06:30 बजे और सूर्यास्त शाम को 05:40 बजे पर होगा।
लोहंडा और खरना छठ पूजा का दूसरा दिन होता है। यह कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को होता है। इस वर्ष लोहंडा और खरना 26 अक्टूबर दिन रविवार को है। इस दिन सूर्योदय सुबह 06:30 बजे पर होगा और सूर्यास्त शाम को 05:39 बजे पर होगा।
छठ पूजा का मुख्य दिन कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को होता है। इस दिन ही छठ पूजा होती है। इस दिन शाम को सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है इस वर्ष छठ पूजा 27 अक्टूबर सोमवार को है। इस दिन सूर्योदय 06:31 बजे पर होगा और सूर्यास्त 05:38 बजे पर होगा।
छठ पूजा का अन्तिम दिन कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि होती है। इस दिन सूर्योदय के समय सूर्य देव को अर्घ्य अर्पित किया जाता है। उसके बाद पारण कर व्रत को पूरा किया जाता है। इस वर्ष छठ पूजा का सूर्योदय अर्घ्य तथा पारण 28 अक्टूबर मंगलवार को होगा। इस दिन सूर्योदय सुबह 06:32 बजे तथा सूर्यास्त शाम को 05:37 बजे होगा।
“जय छठ माता की”
2 months ago | [YT] | 5
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