*कार्तिक माहात्म्य (पद्मपुराण के अनुसार) अध्याय – २५:--*
*(शूकरक्षेत्र का माहात्म्य तथा मासोपवास – व्रत की विधि)*
*महादेव जी कहते हैं – भक्तप्रवर कार्तिकेय ! अब माघ स्नान का माहात्म्य सुनो।*
*महामते ! इस संसार में तुम्हारे समान विष्णु-भक्त पुरुष नहीं हैं। चक्रतीर्थ में श्रीहरि का और मथुरा में श्रीकृष्ण का दर्शन करने से मनुष्य को जो फल मिलता है, वही माघमास में केवल स्नान करने से मिल जाता है।*
*जो जितेन्द्रिय, शान्तचित्त और सदाचारयुक्त होकर माघ मास में स्नान करता है वह फिर कभी संसार-बन्धन में नहीं पड़ता।*
*इतनी कथा सुनाकर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - सत्यभामा ! अब मैं तुम्हारे सामने शूकरक्षेत्र के माहात्म्य का वर्णन करूँगा, जिसके विज्ञान मात्र से मेरा सान्निध्य प्राप्त होता है।*
*पाँच योजन विस्तृत शूकर क्षेत्र मेरा मन्दिर (निवास स्थान) है। देवि ! जो इसमें निवास करता है, वह गदहा हो तो भी चतुर्भुजस्वरूप को प्राप्त होता है।*
*तीन हजार (३,०००) तीन सौ (३,००) तीन हाथ मेरे मन्दिर का परिमाण माना गया है।*
*देवि ! जो अन्य स्थानों में साठ हजार (६०,०००) वर्षां तक तपस्या करता है, वह मनुष्य शूकरक्षेत्र में आधे पहर तक तप करने पर ही उतनी तपस्या का फल प्राप्त कर लेता है।*
*कुरुक्षेत्र के सन्निहति [१] नामक तीर्थ में सूर्यग्रहण के समय तुला-पुरुष के दान से जो फल बताया गया है।*
*वह काशी में दस (१०) गुना, त्रिवेणी में सौ (१००) गुना और गङ्गासागर-संगम में सहस्र (हजारो) गुना कहा गया है।*
*[१] महाभारत युद्ध का स्थान हो 'सन्निहति' कहलाता है। इसी को कहीं-कहीं 'विनशन तीर्थ' भी कहा गया है।*
*किन्तु मेरे निवास भूत शूकरक्षेत्र में उसका फल अनन्तगुना समझना चाहिये।*
*भामिनि ! अन्य तीर्थों में उत्तम विधान के साथ जो लाखों दान दिये जाते हैं, शूकरक्षेत्र में एक ही दान से उनके समान फल प्राप्त हो जाता है। शूकरक्षेत्र, त्रिवेणी और गङ्गासागर-संगम में एक बार ही स्नान करने से मनुष्य की ब्रह्महत्या दूर हो जाती है।*
*पूर्वकाल में राजा अलर्क ने शूकरक्षेत्र का माहात्म्य श्रवण करके सातों द्वीपोंसहित पृथ्वी का राज्य प्राप्त किया था।*
*कार्तिकेय ने कहा - भगवन् ! मैं व्रतों में उत्तम मासोपवास-व्रत का वर्णन सुनना चाहता हूँ। साथ ही उसकी विधि एवं यथोचित फल को भी श्रवण करना चाहता हूँ।*
*महादेव जी बोले – बेटा ! तुम्हारा विचार बड़ा उत्तम है। तुमने जो कुछ पूछा है, वह सब बताता हूँ।*
*जैसे देवताओं में भगवान् विष्णु, तपनेवालों में सूर्य, पर्वतों में मेरु, पक्षियों में गरुड़, तीर्थों में गङ्गा तथा प्रजाओं में वैश्य श्रेष्ठ है, उसी प्रकार सब व्रतों में मासोपवास-व्रत श्रेष्ठ माना गया है।*
*सम्पूर्ण व्रतों से, समस्त तीर्थों से तथा सब प्रकार के दानों से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह सब मासोपवास करनेवाले को मिल जाता है।*
*वैष्णवयज्ञ के उद्देश्य से भगवान् जनार्दन की पूजा करने के पश्चात् गुरु की आज्ञा लेकर मासोपवास-व्रत करना चाहिये।*
*शास्त्रोक्त जितने भी वैष्णवव्रत हैं, उन सबको तथा द्वादशी के पवित्र व्रत को करने के पश्चात् मासोपवास-व्रत करना उचित है।*
*अतिकृच्छ्र, पराक और चान्द्रायण-व्रतों का अनुष्ठान करके गुरु और ब्राह्मण की आज्ञा से मासोपवास-व्रत करे।*
*आश्विनमास के शुक्लपक्ष की एकादशी को उपवास करके तीस (३०) दिनों के लिये इस व्रत को ग्रहण करे।*
*जो मनुष्य भगवान् वासुदेव की पूजा करके कार्तिकमास भर उपवास करता है, वह मोक्षफल का भागी होता है।*
*भगवान् के मन्दिर में जाकर तीनों समय भक्तिपूर्वक सुन्दर मालती, नील-कमल, पद्म, सुगन्धित कमल, केशर, खस, कपूर, उत्तम चन्दन, नैवेद्य और धूप-दीप आदि से श्रीजनार्दन का पूजन करे।*
*मन, वाणी और क्रिया द्वारा श्रीगरुडध्वज की आराधना में लगा रहे। स्त्री, पुरुष, विधवा - जो कोई भी इस व्रत को करे, पूर्ण भक्ति के साथ इन्द्रियों को काबू में रखते हुए दिन-रात श्रीविष्णु के नामों का कीर्तन करता रहे।*
*भक्ति पूर्वक श्रीविष्णु की स्तुति करे। झूठ न बोले। सम्पूर्ण जीवों पर दया करे। अन्त:करण को वृत्तियों को अशान्त न होने दे। हिंसा त्याग दे। सोया हो या बैठा, श्रीवासुदेव का कीर्तन किया करे।*
*अन्न का स्मरण, अवलोकन, सूंघना, स्वाद लेना, चर्चा करना तथा ग्रास को मुँह में लेना — ये सभी निषिद्ध हैं।*
*व्रत में स्थित मनुष्य शरीर में उबटन लगाना, सिर में तेल की मालिश कराना, पान खाना और चन्दन लगाना छोड़ दे तथा अन्यान्य निषिद्ध वस्तुओं का भी त्याग करे।*
*व्रत करने वाला पुरुष शास्त्रविरुद्ध कर्म करनेवाले व्यक्ति का स्पर्श न करे। उससे वार्तालाप भी न करे।*
*पुरुष, सौभाग्यवती स्त्री अथवा विधवा नारी शास्त्रोक्त विधि से एक मासतक उपवास करके भगवान् वासुदेव का पूजन करे।*
*यह व्रत गिने-गिनाये तीस (३०) दिनों का होता है, इससे अधिक या कम दिनों का नहीं ! मन को संयम में रखनेवाला जितेन्द्रिय पुरुष एक मास तक उपवास के नियम को पूरा करके द्वादशी तिथि को भगवान् गरुडध्वजका पूजन करे।*
*फूल, माला, गन्ध, धूप, चन्दन, वस्त्र, आभूषण और वाद्य आदि के द्वारा भगवान् विष्णु को संतुष्ट करे।*
*चन्दन मिश्रित तीर्थ के जल से भक्तिपूर्वक भगवान् को स्नान कराये।*
*फिर उनके अङ्गों में चन्दन का लेप करके गन्ध और पुष्पों से शृङ्गार करे।*
*फिर वस्त्र आदि का दान करके उत्तम ब्राह्मणों को भोजन कराये, उन्हें दक्षिणा दे और प्रणाम करके उनसे त्रुटियों के लिये क्षमा-याचना करे।*
*इस प्रकार मासोपवासपूर्वक जनार्दन की पूजा करके ब्राह्मणों को भोजन कराने से मनुष्य श्रीविष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है।*
*मण्डप में उपस्थित ब्राह्मणों से बारम्बार इस प्रकार कहना चाहिये 'द्विजवरो ! इस व्रत में जो कोई भी कार्य मन्त्रहीन, क्रियाहीन और सब प्रकार के साधनों एवं विधियों से हीन हुआ हो वह सब आप लोगों के वचन और प्रसाद से परिपूर्ण हो जाय।*
*कार्तिकेय ! इस प्रकार मैंने तुमसे मासोपवास की विधिका यथावत् वर्णन किया है।*
श्री हरी-विष्णु के अवतार ( धन्वन्तरि-अवतार ) 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ भगवान धन्वन्तरि भगवार विष्णु के अवतारों में से एक हैं। भगवान धन्वन्तरि आयुर्वेद जगत् के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता माने जाते हैं। भारतीय पौराणिक दृष्टि से 'धनतेरस' को स्वास्थ्य के देवता धन्वन्तरि का दिवस माना जाता है। धन्वन्तरि आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य देवता हैं। धनतेरस के दिन उनसे प्रार्थना की जाती है कि वे समस्त जगत् को निरोग कर मानव समाज को दीर्घायु प्रदान करें।
देवता एवं दैत्यों के सम्मिलित प्रयास के श्रान्त हो जाने पर समुद्र मन्थन स्वयं क्षीर-सागरशायी कर रहे थे। हलाहल, कामधेनु, ऐरावत, उच्चै:श्रवा अश्व, अप्सराएँ, कौस्तुभमणि, वारुणी, महाशंख, कल्पवृक्ष, चन्द्रमा, लक्ष्मी और कदली वृक्ष उससे प्रकट हो चुके थे। अन्त में हाथ में अमृतपूर्ण स्वर्ण कलश लिये श्याम वर्ण, चतुर्भुज भगवान धन्वन्तरि प्रकट हुए। अमृत-वितरण के पश्चात् देवराज इन्द्र की प्रार्थना पर भगवान धन्वन्तरि ने देव-वैद्य का पद स्वीकार कर लिया। अमरावती उनका निवास बनी। कालक्रम से पृथ्वी पर मनुष्य रोगों से अत्यन्त पीड़ित हो गये। प्रजापति इन्द्र ने धन्वन्तरि जी से प्रार्थना की। भगवान ने काशी के राजा दिवोदास के रूप में पृथ्वी पर अवतार धारण किया। इनकी 'धन्वन्तरि-संहिता' आयुर्वेद का मूल ग्रन्थ है। आयुर्वेद के आदि आचार्य सुश्रुत मुनि ने धन्वन्तरि जी से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया था।
भगवान धन्वन्तरि को आयुर्वेद के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता के रूप में जाना जाता है। आदिकाल में आयुर्वेद की उत्पत्ति ब्रह्मा से ही मानते हैं। आदिकाल के ग्रंथों में 'रामायण'-'महाभारत' तथा विविध पुराणों की रचना हुई, जिसमें सभी ग्रंथों ने 'आयुर्वेदावतरण' के प्रसंग में भगवान धन्वन्तरि का उल्लेख किया है। धन्वन्तरि प्रथम तथा द्वितीय का वर्णन पुराणों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रंथों में भी छुट-पुट रूप से मिलता है, जिसमें आयुर्वेद के आदि ग्रंथों 'सुश्रुत्रसंहिता', 'चरकसंहिता', 'काश्यप संहिता' तथा 'अष्टांग हृदय' में उनका विभिन्न रूपों में उल्लेख मिलता है।
इसके अतिरिक्त अन्य आयुर्वेदिक ग्रंथों- 'भाव प्रकाश', 'शार्गधर' तथा उनके ही समकालीन अन्य ग्रंथों में 'आयुर्वेदावतरण' का प्रसंग उधृत है। इसमें भगवान धन्वन्तरि के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है। महाकवि व्यास द्वारा रचित 'श्रीमद्भावत पुराण' के अनुसार धन्वन्तरि को भगवान विष्णु का अंश माना गया है तथा अवतारों में अवतार कहा गया है।
'महाभारत', 'विष्णुपुराण', 'अग्निपुराण', 'श्रीमद्भागवत' महापुराणादि में यह उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि देवता और असुर एक ही पिता कश्यप ऋषि के संतान थे। किंतु इनकी वंश वृद्धि बहुत अधिक हो गई थी। अतः ये अपने अधिकारों के लिए परस्पर आपस में लड़ा करते थे। वे तीनों ही लोकों पर राज्याधिकार प्राप्त करना चाहते थे। असुरों या राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य थे, जो संजीवनी विद्या जानते थे और उसके बल से असुरों को पुन: जीवित कर सकते थे। इसके अतिरिक्त दैत्य, दानव आदि माँसाहारी होने के कारण हृष्ट-पुष्ट स्वस्थ तथा दिव्य शस्त्रों के ज्ञाता थे। अतः युद्ध में असुरों की अपेक्षा देवताओं की मृत्यु अधिक होती थी।
वैद्य 〰️〰️ 'गरुड़पुराण' और 'मार्कण्डेयपुराण' के अनुसार वेद मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण ही धन्वन्तरि वैद्य कहलाए थे। 'विष्णुपुराण' के अनुसार धन्वन्तरि दीर्घतथा के पुत्र बताए गए हैं। इसमें बताया गया है वह धन्वन्तरि जरा विकारों से रहित देह और इंद्रियों वाला तथा सभी जन्मों में सर्वशास्त्र ज्ञाता है। भगवान नारायण ने उन्हें पूर्वजन्म में यह वरदान दिया था कि काशिराज के वंश में उत्पन्न होकर आयुर्वेद के आठ भाग करोगे और यज्ञ भाग के भोक्ता बनोगे। इस प्रकार धन्वन्तरि की तीन रूपों में उल्लेख मिलता है-
समुद्र मन्थन से उत्पन्न धन्वन्तरि प्रथम धन्व के पुत्र धन्वन्तरि द्वितीय काशिराज दिवोदास धन्वन्तरि तृतीय
अन्य प्रसंग 〰️〰️〰️〰️ आयु के पुत्र का नाम धन्वन्तरि था। वह वीर यशस्वी तथा धार्मिक था। राज्यभोग के उपरांत योग की ओर प्रवृत्त होकर वह गंगा सागर संगम पर समाधि लगाकर तपस्या करने लगा। गत अनेक वर्षों से उससे त्रस्त महाराक्षस समुद्र में छुपा हुआ था। वैरागी धन्वन्तरि को देख उसने नारी का रूप धारण कर उसका तप भंग कर दिया, तदनंतर अंतर्धान हो गया। धन्वन्तरि उसी की स्मृतियों में भटकने लगा। ब्रह्मा ने उसे समस्त स्थिति से अवगत किया तथा विष्णु की आराधना करने के लिए कहा। विष्णु को प्रसन्न करके उसने इन्द्र पद प्राप्त किया, किंतु पूर्वजन्मों के कर्मों के फलस्वरूप वह तीन बार इन्द्र पद से च्युत हुआ। 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
तुलसी कौन थी? तुलसी (पौधा) पूर्व जन्म मे एक लड़की थी जिस का नाम वृंदा था, राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्त थी.बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा, पूजा किया करती थी.जब वह बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था. वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी. एक बार देवताओ और दानवों में युद्ध हुआ जब जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने कहा - स्वामी आप युद्ध पर जा रहे है आप जब तक युद्ध में रहेगे में पूजा में बैठ कर आपकी जीत के लिये अनुष्ठान करुगी,और जब तक आप वापस नहीं आ जाते, मैं अपना संकल्प नही छोडूगी। जलंधर तो युद्ध में चले गये,और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गयी, उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके, सारे देवता जब हारने लगे तो विष्णु जी के पास गये। सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि – वृंदा मेरी परम भक्त है में उसके साथ छल नहीं कर सकता । फिर देवता बोले - भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है अब आप ही हमारी मदद कर सकते है। भगवान ने जलंधर का ही रूप रखा और वृंदा के महल में पँहुच गये जैसे ही वृंदा ने अपने पति को देखा, वे तुरंत पूजा मे से उठ गई और उनके चरणों को छू लिए,जैसे ही उनका संकल्प टूटा, युद्ध में देवताओ ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काट कर अलग कर दिया,उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पडा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है? उन्होंने पूँछा - आप कौन हो जिसका स्पर्श मैने किया, तब भगवान अपने रूप में आ गये पर वे कुछ ना बोल सके,वृंदा सारी बात समझ गई, उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया आप पत्थर के हो जाओ, और भगवान तुंरत पत्थर के हो गये। सभी देवता हाहाकार करने लगे लक्ष्मी जी रोने लगे और प्रार्थना करने लगे यब वृंदा जी ने भगवान को वापस वैसा ही कर दिया और अपने पति का सिर लेकर वे सती हो गयी उनकी राख से एक पौधा निकला तब भगवान विष्णु जी ने कहा –आज से इनका नाम तुलसी है, और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा और में बिना तुलसी जी के भोग स्वीकार नहीं करुगा। तब से तुलसी जी कि पूजा सभी करने लगे। और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में किया जाता है. देव-उठावनी एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है !```
📚 आर्यभट्ट ने शून्य की खोज की तो रामायण में रावण के दस सिर की गणना कैसे की गयी...❓️
कुछ लोग हिंदू धर्म व "रामायण" "महाभारत" "गीता" को काल्पनिक दिखाने के लिए यह प्रश्न करते है कि जब आर्यभट ने लगभग 6 वीं शताब्दी मे (शून्य/जीरो) की खोज की तो आर्यभट की खोज से लगभग 5000 हजार वर्ष पहले रामायण मे रावण के 10 सिर की गिनती कैसे की गई। और महाभारत मे कौरवो की 100 की संख्या की गिनीती कैसे की गई। जबकि उस समय लोग (जीरो) को जानते ही नही थे, तो लोगो ने गिनती को कैसे गिना!
✍️"अब मै इस प्रश्न का उत्तर दे रहा हूँ"👉
कृपया इसे पूरा ध्यान से पढे। आर्यभट्ट से पहले संसार 0(शुन्य) को नही जानता था। आर्यभट्ट ने ही (शुन्य / जीरो) की खोज की, यह एक सत्य है। लेकिन आर्यभट्ट ने "0(जीरो) की खोज 'अंको मे' की थी, 'शब्दों' में खोज नहीं की थी, उससे पहले 0 (अंक को) शब्दो मे शुन्य कहा जाता था। उस समय मे भी हिन्दू धर्म ग्रंथो मे जैसे शिव पुराण, स्कन्द पुराण आदि मे आकाश को "शुन्य" कहा गया है। यहाँ पे "शुन्य"बका मतलव अनंत से होता है। लेकिन रामायण व महाभारत काल मे गिनती अंको मे न होकर शब्दो मे होता था,और वह भी "संस्कृत" मे।
उस समय "1,2,3,4,5,6,7,8, 9,10" अंक के स्थान पे 'शब्दो' का प्रयोग होता था वह भी 'संस्कृत' के शव्दो का प्रयोग होता था। जैसे:1 = प्रथम 2 = द्वितीय 3 = तृतीय" 4 = चतुर्थ 5 = पंचम"" 6 = षष्टं" 7 = सप्तम"" 8 = अष्टम, 9 = नवंम"" 10 = दशम। "दशम = दस" यानी दशम मे "दस" तो आ गया, लेकिन अंक का 0 (जीरो/शुन्य) नही आया, रावण को दशानन कहा जाता है। 'दशानन मतलब दश+आनन =दश सिर वाला' अब देखो रावण के दस सिर की गिनती तो हो गई। लेकिन अंको का 0 (जीरो) नही आया।
इसी प्रकार महाभारत काल मे "संस्कृत" शब्द मे "कौरवो" की सौ की संख्या को "शत-शतम" बताया गया। 'शत्' एक संस्कृत का "शब्द है, जिसका हिन्दी मे अर्थ सौ (100) होता है। सौ(100) को संस्कृत मे शत् कहते है। शत = सौ इस प्रकार महाभारत काल मे कौरवो की संख्या गिनने मे सौ हो गई। लेकिन इस गिनती मे भी "अंक का 00(डबल जीरो)" नही आया,और गिनती भी पूरी हो गई। महाभारत धर्मग्रंथ में कौरव की संख्या शत बताया गया है।
रोमन में भी 1-2-3-4-5-6-7-8-9-10 की जगह पे (¡), (¡¡), (¡¡¡) पाँच को V कहा जाता है। दस को x कहा जाता है। X= दस इस रोमन x मे अंक का (जीरो/0) नही आया। और हम" दश पढ़ "भी लिए और" गिनती पूरी हो गई! इस प्रकार रोमन word मे "कही 0 (जीरो) "नही आता है। और आप भी" रोमन मे" एक से लेकर "सौ की गिनती "पढ लिख सकते है। आपको 0 या 00 लिखने की जरूरत भी नही पड़ती है। पहले के जमाने मे गिनती को शब्दो मे लिखा जाता था। उस समय अंको का ज्ञान नही था। जैसे गीता, रामायण मे 1"2"3"4"5"6 या बाकी पाठो को इस प्रकार पढा जाता है। जैसे (प्रथम अध्याय, द्वितीय अध्याय, पंचम अध्याय,दशम अध्याय... आदि!) इनके दशम अध्याय ' मतलब दशवा पाठ (10 lesson) होता है। दशम अध्याय= दसवा पाठ इसमे 'दश' शब्द तो आ गया। लेकिन इस दश मे 'अंको का 0' (जीरो)" का प्रयोग नही हुआ। बिना 0 आए पाठो (lesson) की गिनती दश हो गई।
हिंदु विरोधी और नास्तिक लोग सिर्फ अपने गलत कुतर्क द्वारा हिंदू धर्म व हिन्दू धर्मग्रंथो को काल्पनिक साबित करना चाहते है। जिससे हिंदुओं के मन मे हिंदू धर्म के प्रति नफरत भरकर और हिन्दू धर्म को काल्पनिक साबित करके, हिंदू समाज को अन्य धर्मों में परिवर्तित किया जाए। लेकिन आज का हिंदू समाज अपने धार्मिक शिक्षा को ग्रहण ना करने के कारण इन लोगो के झुठ को सही मान बैठता है। यह हमारे धर्म व संस्कृत के लिए हानि कारक है। अपनी सभ्यता पहचानें, गर्व करें की "हम सनातनी हैं", "हम भारतीय हैं"।
*कार्तिक माहात्म्य (पद्मपुराण के अनुसार) अध्याय – २४:--*
*(कार्तिक मास मे पालन करने योग्य नियम)*
*सत्यभामा ने कहा – प्रभो ! कार्तिकमास सब मासों में श्रेष्ठ माना गया है। मैंने उसके माहात्म्य को विस्तारपूर्वक नहीं सुना। कृपया उसी का वर्णन कीजिये।*
*भगवान् श्रीकृष्ण बोले - सत्यभामे ! तुमने बड़ी उत्तम बात पूछी है। पूर्वकाल में महात्मा सूत ने शौनक मुनि से आदरपूर्वक कार्तिक व्रत का वर्णन किया था। वही प्रसङ्ग मैं तुम्हें सुनाता हूँ।*
*सूतजी ने कहा - मुनिश्रेष्ठ शौनकजी ! पूर्वकाल में कार्तिकेय जी के पूछने पर महादेवजी ने जिसका वर्णन किया था, उसको आप श्रवण कीजिये।*
*कार्तिकेय जी बोले – पिताजी ! आप वक्ताओं में श्रेष्ठ हैं। मुझे कार्तिकमास के स्नान की विधि बताइये, जिससे मनुष्य दुःख रूपी समुद्र से पार हो जाते हैं। साथ ही तीर्थ के जल का माहात्म्य और माघस्नान का फल भी बताइये।*
*महादेव जी ने कहा - एक ओर सम्पूर्ण तीर्थ, समस्त दान, दक्षिणाओं सहित यज्ञ, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, हिमालय, अक्रूरतीर्थ, काशी और शूकरक्षेत्र में निवास तथा दूसरी ओर केवल कार्तिकमास हो तो वही भगवान् केशव को सर्वदा प्रिय है।*
*जिसके हाथ, पैर, वाणी और मन वश में हों तथा जिसमें विद्या, तप और कीर्ति विद्यमान हों, वही तीर्थ के पूर्ण फल को प्राप्त करता है।*
*श्रद्धारहित, नास्तिक, संशयालु और कोरी तर्कबुद्धि का सहारा लेनेवाले मनुष्य तीर्थसेवन के फल भागी नहीं होते।*
*जो ब्राह्मण सबेरे उठकर सदा प्रात:स्नान करता है, वह सब पापों से मुक्त हो परमात्मा को प्राप्त होता है।*
*षडानन ! स्नान का महत्त्व जानने वाले पुरुषों ने चार प्रकार के स्नान बतलाये हैं वायव्य, वारुण, ब्राह्म और दिव्य।*
*यह सुनकर सत्यभामा बोली – प्रभो ! मुझे चारों स्नानों के लक्षण बतलाइये।*
*भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - प्रिये! गोधूलिद्वारा किया हुआ स्नान वायव्य कहलाता है, सागर आदि जलाशयों में किये हुए स्नान को वारुण कहते हैं, 'आपो हि ष्ठा मयो' आदि ब्राह्मण – मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक जो मार्जन किया जाता है।*
*उसका नाम ब्राह्म है तथा बरसते हुए मेघ के जल और सूर्य की किरणों से शरीर की शुद्धि करना दिव्य स्नान माना गया है।*
*सब प्रकार के स्त्रानों में वारुण स्नान श्रेष्ठ है।*
*ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य मन्त्रोच्चारण पूर्वक स्नान करें। परन्तु शूद्र और स्त्रियों के लिये बिना मन्त्र के ही स्नान का विधान है।*
*बालक, युवा, वृद्ध, पुरुष, स्त्री और नपुंसक - सब लोग कार्तिक और माघ में प्रात:स्नान की प्रशंसा करते हैं। कार्तिक में प्रात:काल स्नान करनेवाले लोग मनोवाञ्छित फल प्राप्त करते हैं।*
*कार्तिकेय जी बोले - पिताजी! अन्य धर्मों का भी वर्णन कीजिये, जिनका अनुष्ठान करने से मनुष्य अपने समस्त पाप धोकर देवता बन जाता है।*
*महादेव जी ने कहा – बेटा ! कार्तिकमास को उपस्थित देख जो मनुष्य दूसरे का अन्न त्याग देता है, वह प्रतिदिन कृच्छ्रव्रत का फल प्राप्त करता है।*
*कार्तिक में तेल, मधु, काँसे के बर्तन में भोजन और मैथुन का विशेषरूप से परित्याग करना चाहिये।*
*एक बार भी मांस भक्षण करने से मनुष्य राक्षस की योनि में जन्म पाता है और साठ हजार (६०,०००) वर्षां तक विष्ठा में डालकर सड़ाया जाता है। उससे छुटकारा पाने पर वह पापी विष्ठा खाने वाला ग्राम-शूकर होता है।*
*कार्तिकमास में शास्त्रविहित भोजन का नियम करने पर अवश्य ही मोक्ष प्राप्त होता है। भगवान् विष्णु का परमधाम ही मोक्ष है।*
*कार्तिक के समान कोई मास नहीं है, श्रीविष्णु से बढ़कर कोई देवता नहीं है, वेद के तुल्य कोई शास्त्र नहीं है, गङ्गा के समान कोई तीर्थ नहीं है।*
*सत्य के समान सदाचार, सत्ययुग के समान युग, रसना के तुल्य तृप्ति का साधन, दान के सदृश सुख, धर्म के समान मित्र और नेत्र के समान कोई ज्योति नहीं है [१]।*
[१] .... । प्रवृत्तानां तु भक्षाणां कार्तिके नियमे कते।। अवश्यं प्राप्यते मोक्षो विष्णोस्तत्परमं पदम् । न कार्तिकसमो मासो न देव: केशवात्परः॥ न वेदसदृशं शास्त्रं न तीर्थं गङ्गया समम्। न सत्येन समं वृत्तं न कृतेन समं युगम् ।।
*स्नान करने वाले पुरुषों के लिये समुद्रगामिनी पवित्र नदी प्राय: दुर्लभ होती है।*
*कुल के अनुरूप उत्तम शीलवाली कन्या, कुलीन और शीलवान् दम्पति, जन्मदायिनी माता, विशेषतः पिता, साधु पुरुषों के सम्मान का अवसर, धार्मिक पुत्र, द्वारका का निवास, भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन, गोमती का स्नान और कार्तिक का व्रत - ये सब मनुष्य के लिये प्रायः दुर्लभ हैं।*
*चन्द्रमा और सूर्य के ग्रहणकाल में ब्राह्मणों को पृथ्वी दान करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, वह कार्तिक में भूमि पर शयन करने वाले पुरुष को स्वतः प्राप्त हो जाता है।*
*ब्राह्मण-दम्पति को भोजन कराये, चन्दन आदि से उनकी पूजा करे। कम्बल, नाना प्रकार के रत्न और वस्त्र दान करे। ओढ़ने के साथ ही बिछौना भी दे।*
*तुम्हें कार्तिकमास में जूते और छाते का भी दान करना चाहिये।*
*कार्तिकमास में जो मनुष्य प्रतिदिन पत्तल में भोजन करता है, वह चौदह (१४) इन्द्रों की आयुपर्यन्त कभी दुर्गति में नहीं पड़ता। उसे सम्पूर्ण कामनाओं तथा समस्त तीर्थों का फल प्राप्त होता है।*
*पलाश के पत्ते पर भोजन करने से मनुष्य कभी नरक नहीं देखता; किन्तु वह पलाश के बिचले पत्र का अवश्य त्याग कर दे।*
*कार्तिक में तिल का दान, नदी का स्नान, सदा साधु पुरुषों का सेवन और पलाश के पत्तों में भोजन सदा मोक्ष देनेवाला है।*
*कार्तिक के महीने में मौन-व्रत का पालन, पलाश के पत्ते में भोजन, तिलमिश्रित जलसे स्नान, निरन्तर क्षमा का आश्रय और पृथ्वी पर शयन करनेवाला पुरुष युग युग के उपार्जित पापों का नाश कर डालता है।*
*जो कार्तिकमास में भगवान् विष्णु के सामने उषाकाल तक जागरण करता है, उसे सहस्र गोदानों का फल मिलता है।*
*पितृपक्ष में अन्नदान करने से तथा ज्येष्ठ और आषाढ मास में जल देने से मनुष्यों को जो फल मिलता है, वह कार्तिक में दूसरों का दीपक जलाने मात्र से प्राप्त हो जाता है।*
न तृप्ती रसनातुल्या न दानसदृशं सुखम् । न धर्मसदृशं मित्रं न ज्योतिश्चक्षुषा समम् ॥ (१२०। २२-२५)
*जो बुद्धिमान् कार्तिक में मन, वाणी और क्रिया द्वारा पुष्कर-तीर्थ का स्मरण करता है, उसे लाखों-करोड़ों गुना पुण्य होता है।*
*माघ मास में प्रयाग, कार्तिक में पुष्कर और वैशाख मास में अवन्तीपुरी (उज्जैन) - ये एक युगतक उपार्जित किये हुए पापों का नाश कर डालते हैं।*
*कार्तिकेय ! संसार में विशेषतः कलियुग में वे ही मनुष्य धन्य हैं जो सदा पितरों के उद्धार के लिये श्रीहरि का सेवन करते हैं।*
*बेटा ! बहुत से पिण्ड देने और गया में श्राद्ध आदि करने की क्या आवश्यकता है। वे मनुष्य तो हरिभजन के ही प्रभाव से पितरों का नरक से उद्धार कर देते हैं।*
*यदि पितरों के उद्देश्य से दूध आदि के द्वारा भगवान् विष्णु को स्नान कराया जाय तो वे पितर स्वर्ग में पहुँचकर कोटि कल्पों तक देवताओं के साथ निवास करते हैं।*
*जो कमल के एक फूल से भी देवेश्वर भगवान् लक्ष्मीपति का पूजन करता है, वह एक करोड़ वर्षतक के पापों का नाश कर देता है।*
*देवताओं के स्वामी भगवान् विष्णु कमल के एक पुष्प से भी पूजित और अभिवन्दित होने पर एक हजार सात सौ अपराध क्षमा कर देते हैं।*
*षडानन ! जो मुख में, मस्तक पर तथा शरीर में भगवान् की प्रसाद भूता तुलसी को प्रसन्नता पूर्वक धारण करता है, उसे कलियुग नहीं छूता।*
*भगवान् विष्णु को निवेदन किये हुए प्रसाद से जिसके शरीर का स्पर्श होता है, उसके पाप और व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं।*
*जो शङ्ख का जल, श्रीहरि को भक्तिपूर्वक अर्पण किया हुआ नैवेद्य, चरणोदक, चन्दन तथा प्रसादस्वरूप धूप - ये ब्रह्महत्या का भी पाप दूर करनेवाले हैं।*
👉 आज रविवार को एकादशी व्रत (वैष्णव) व तुलसी विवाह है। 👉 वैकुण्ठ चतुर्दशी 4 नवम्बर मङ्गलवार को है। 👉 कार्तिक कृष्णपक्ष की चतुर्दशी 'नरक चतुर्दशी' और शुक्लपक्ष की चतुर्दशी 'वैकुण्ठ चतुर्दशी' कहलाती है। 👉 वैकुण्ठ चतुर्दशी के दिन अपर रात्रि में हरिहर (विष्णु - शिव) का मिलन हुआ था। 👉 वैकुण्ठ चतुर्दशी के दिन ही काशी के मणिकर्णिका घाट पर भगवान शिव ने विष्णु को करोड़ों सूर्य की प्रभा के समान कान्तिमान सुदर्शन चक्र प्रदान किया था। 👉 तभी से प्रत्येक वैकुण्ठ चतुर्दशी की अपर रात्रि में भगवान शिव और भगवान विष्णु मिलते हैं। 👉 आज से पूर्णिमा तक पॉंच दिन प्रतिदिन आकाशदीप प्रज्ज्वलित करना चाहिए। 👆 इन पॉंच दिनों में बहुत से बीज हों ऐसे फलों का सेवन तथा चावल, सभी प्रकार की दाल, लौकी, गाजर, बैंगन, वनभंटा (ऊॅंट कटारा), बासी अन्न, भॅंसीड़, मसूर, दोबार भोजन, मदिरा, पराया अन्न, कॉंजी, छत्राक, दुर्गन्धित पदार्थ, लसोड़े का फल, प्याज, श्रृङ्ग (सिंघाड़ा), सेज, बेर, राई, चिवड़ा आदि का सेवन निषेध है। 👉 इन पॉंच दिनों में केला, ऑंवला, वस्त्र, अन्न, शैय्या (बिछावन), जूता - चप्पल, छाता, ऊनी वस्त्र, तुलसी पौधा, शालग्रामशिला एवं दीप के दान का अत्यधिक महत्त्व है।
----------------------------------------------- *आज रविवार 2 नवम्बर 2025 के व्रत - पर्व - उत्सव*
पावन देवोत्थान एकादशी एवं तुलसी विवाह की आप सभी को हार्दिक बधाई तथा शुभकामनाएं। भगवान शालिग्राम और माँ तुलसी की कृपा से आपके जीवन में सदैव सुख, शान्ति, समृद्धि, बनी रहे आपकी समस्त मनोकामनाएं पूरी हों।
सनातन धर्मशास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु चार महीने के विश्राम के बाद पुनः धरती का कार्यभार संभालने के लिए कार्तिक मास शुक्लपक्ष की एकादशी तिथि को योगनिद्रा से जागते है, और इसी के साथ चतुर्मास समाप्त हो जाता है। इसी दिन से सभी मंगल कार्य शुभारंभ हो जाते हैं, इस दिन भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की पूजा तथा शालीग्राम और तुलसी का विवाह भी किया जाता है।
_कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी देवउत्थान/ प्रबोधिनी एकादशी कहलाती हैं। इस एकादशी को देवोतथान या देवउठनी एकादशी भी कहते है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन को श्री विष्णु अपना चार मास के विश्राम के पश्चात जागते हैं।_
*देवउत्थान एकादशी व्रत महात्म्य*
प्रबोधिनी’ का महात्म्य पाप का नाश, पुण्य की वृद्धि तथा उत्तम बुद्धि वाले पुरुषों को मोक्ष प्रदान करने वाला है। एकादशी को एक ही उपवास कर लेने से मनुष्य हजार अश्वमेघ तथा सौ राजसूय यज्ञ का फल पा लेता है। जो दुर्लभ है, जिसकी प्राप्ति असम्भव है तथा जिसे त्रिलोकी में किसी ने भी नहीं देखा है, ऐसी वस्तु के लिये भी याचना करने पर ‘प्रबोधिनी’ एकादशी उसे दे देती है। भक्तिपूर्वक उपवास करने पर मनुष्यों को ‘हरिबोधिनी’ एकादशी ऐश्वर्य, सम्पति, उत्तम बुद्धि, राज्य तथा सुख प्रदान करती है। मेरूपर्वत के समान जो बड़े-बड़े पाप है , उन सबको यह पापनाशिनी ‘प्रबोधिनी’ एक ही उपवास में भस्म कर देती है। जो लोग ‘प्रबोधिनी’ एकादशीका मन से ध्यान करते तथा जो इसके व्रत का अनुष्ठान करते हैं, उनके पितर नरक के दु:खों से छुटकारा पाकर भगवान विष्णु के परम धाम को चले जाते हैं। जो ‘ प्रबोधिनी’ एकादशी के दिन श्रीविष्णु की कथा श्रवण करता है, उसे सातों द्वीपों से युक्त पृथ्वी दान करने का फल प्राप्त होता है। इस एकादशी के दिन तुलसी विवाहोत्सव भी मनाया जाता है।
*पूजन सामग्री*
श्री विष्णु जी की मूर्ति, वस्त्र, पुष्प, पुष्पमाला, नारियल, सुपारी, अन्य ऋतुफल, धूप, दीप, घी, पंचामृत (कच्चा दूध,दही,घी,शहद और शक्कर का मिश्रण), अक्षत, तुलसी दल, चंदन, मिष्ठान।
*विधि*
दशमी तिथि को सात्विक भोजन ग्रहण करें। ब्रह्मचर्य का पालन करें। एकादशी के दिन प्रात:काल उठकर नित्य क्रम कर स्नान कर लें। स्वच्छ वस्त्र धारण करें। पूजा गृह को शुद्ध कर लें। आसन पर बैठ जाये। एकादशी को देवदेवेश्वर भगवान विष्णु का पूजन करें। देवउत्थान/ प्रबोधिनी एकादशी व्रत की कथा सुने अथवा सुनाये। आरती करें। उपस्थित लोगों में प्रसाद वितरित करें। रात्रि जागरण करें। द्वादशी के दिन प्रात:काल उठकर स्नान करें। श्रीविष्णु भगवान की पूजा करें। ब्राह्मणों को भोजन करायें। उसके उपरांत स्वयं भोजन ग्रहण करें।
*देवोत्थान-प्रबोधिनी एकादशी की महिमा👇*
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा :- हे अर्जुन ! मैं तुम्हें मुक्ति देने वाली कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के सम्बन्ध में नारद और ब्रह्माजी के बीच हुए वार्तालाप को सुनाता हूँ । एक बार नारादजी ने ब्रह्माजी से पूछा : ‘हे पिता ! ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के व्रत का क्या फल होता है, आप कृपा करके मुझे यह सब विस्तारपूर्वक बतायें ।’
ब्रह्माजी बोले : हे पुत्र ! जिस वस्तु का त्रिलोक में मिलना दुष्कर है, वह वस्तु भी कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के व्रत से मिल जाती है । इस व्रत के प्रभाव से पूर्व जन्म के किये हुए अनेक बुरे कर्म क्षणभर में नष्ट हो जाते है । हे पुत्र ! जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इस दिन थोड़ा भी पुण्य करते हैं, उनका वह पुण्य पर्वत के समान अटल हो जाता है । उनके पितृ विष्णुलोक में जाते हैं।
हे नारद ! मनुष्य को भगवान की प्रसन्नता के लिए कार्तिक मास की इस एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए । जो मनुष्य इस एकादशी व्रत को करता है, वह धनवान, योगी, तपस्वी तथा इन्द्रियों को जीतने वाला होता है, क्योंकि एकादशी भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है ।
इस एकादशी के दिन जो मनुष्य भगवान की प्राप्ति के लिए दान, तप, होम, यज्ञ ( भगवान्नामजप भी परम यज्ञ है। ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ । यज्ञों में जपयज्ञ मेरा ही स्वरुप है।’ - श्रीमद्भगवदगीता ) आदि करते हैं, उन्हें अक्षय पुण्य मिलता है एवं उसके सात जन्मों के शारीरिक, वाचिक और मानसिक पाप नष्ट हो जाते हैं।
*देवउठनी एकादशी व्रत कथा :–*
*कथा - 1*
पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार लक्ष्मी ने विष्णु से कहा, ‘हे नाथ! आप दिन-रात जागते हैं और फिर लाखों-करोड़ों वर्षों तक सो जाते हैं तथा उस समय समस्त चराचर का नाश भी कर डालते हैं। आप नियम से प्रतिवर्ष निद्रा लिया करें। इससे मुझे भी कुछ समय विश्राम करने का समय मिल जाएगा।’ विष्णु मुस्कुराए और बोले, ‘देवी तुमने ठीक कहा है।
मेरे जागने से सब देवों को खासकर तुमको कष्ट होता है। तुम्हें मेरी सेवा से जरा भी अवकाश नहीं मिलता इसलिए अब मैं प्रति वर्ष चार मास शयन किया करूंगा। उस समय तुमको और देवगणों का अवकाश होगा। मेरी यह निद्रा अल्पनिद्रा कहलाएगी। यह मेरे भक्तों को परम मंगलकारी उत्सवप्रद तथा पुण्यवर्धक होगी।
*कथा - 2* नारदजी ने ब्रह्माजी से प्रबोधिनी एकादशी के व्रत का फल बताने का कहा। ब्रह्माजी ने सविस्तार बताया, हे नारद! एक बार सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र ने स्वप्न में ऋषि विश्वमित्र को अपना राज्य दान कर दिया है। अगले दिन ऋषि विश्वमित्र दरबार में पहुंचे तो राजा ने उन्हें अपना सारा राज्य सौंप दिया। ऋषि ने उनसे दक्षिणा की पाँच सौं स्वर्ण मुद्राएँ और माँगी। दक्षिणा चुकाने के लिए राजा को अपनी पत्नी एवं पुत्र तथा स्वयं को बेचना पड़ा। राजा को एक डोम ने खरीदा था। डोम ने राजा हरिशचन्द्र को श्मशान में नियुक्त करके मृतकों के सम्बन्धियों से कर लेकर, शव दाह करने का कार्य सौंपा था। उनको जब यह कार्य करते हुए कई वर्ष बीत गए तो एक दिन अकस्मात् उनकी गौतम ऋषि से भेंट हो गई। राजा ने उनसे अपने ऊपर बीती सब बातें बताई तो मुनि ने उन्हें इसी अजा (प्रबोधिनी) एकादशी का व्रत करने की सलाह दी।
राजा ने यह व्रत करना आरम्भ कर दिया। इसी बीच उनके पुत्र रोहिताश का सर्प के डसने से स्वर्गवास हो गया। जब उसकी माता अपने पुत्र को अन्तिम संस्कार हेतु श्मशान पर लायी तो राजा हरिशचन्द्र ने उससे श्मशान का कर माँगा। परन्तु उसके पास श्मशान कर चुकाने के लिए कुछ भी नहीं था। उसने चुन्दरी का आधा भाग देकर श्मशान का कर चुकाया। तत्काल आकाश में बिजली चमकी और प्रभु प्रकट होकर बोले, ‘महाराज! तुमने सत्य को जीवन में धारण करके उच्चतम आदर्श प्रस्तुत किया है। तुम्हारी कर्तव्य निष्ठ धन्य है। तुम इतिहास में सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र के नाम से अमर रहोगे।’ भगवत्कृपा से राजा हरिशचन्द्र का पुत्र जीवित हो गया। तीनों प्राणी चिरकाल तक सुख भोगकर अन्त में स्वर्ग को चले गए।
*एकादशी सेवा*
इस एकादशी के दिन जो मनुष्य भगवान की प्राप्ति के लिए दान, तप, होम, यज्ञ आदि करते हैं, उन्हें अक्षय पुण्य मिलता है एवं उसके सात जन्मों के शारीरिक, वाचिक और मानसिक पाप नष्ट हो जाते हैं।
भगवान श्री विष्णु की कृपा से संपूर्ण सृष्टि का कल्याण हो, सभी का जीवन संकट मुक्त, सुख-समृद्धि एवं आरोग्यता से परिपूर्ण हो, यही प्रार्थना है।
जय श्री राम🙏❤🙏 कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी के बाद कार्तिक पूर्णिमा तक कभी भी आप कर सकते है शाली ग्राम के साथ तुलसी माँ का विवाह इसलिए सदा बोले, हमेशा बोले जय श्री राम,जय जय श्री राम🙏❤🙏
👉 कार्तिक मास में तुलसी वृक्ष के समीप शालग्राम या भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करना चाहिए। 👉 यद्यपि तुलसी वृक्ष उपलब्ध न हो तो ऑंवला वृक्ष के नीचे उक्त शुभ पूजा की जा सकती है। 👉 समुद्र मन्थन के दौरान जब भगवान विष्णु धन्वन्तरि के रूप में अमृत कलश लेकर आए, तब उनके प्रेमाश्रु की कुछ बून्दें अमृत कलश पर पड़ीं तो वहॉं गोलाकार तुलसी (वृन्दा) प्रकट हो गईं। 👉 कालान्तर में किसी प्रसंगवश वृन्दा की भस्म में पार्वती के बीज से तुलसी वृक्ष के रूप में प्रकट हुईं। 👉 तुलसी विवाह कार्तिक शुक्ल प्रबोधिनी एकादशी को किया जाता है, किन्तु विवाह उत्सव का आरम्भ कार्तिक शुक्ल नवमी से होता है। 👉 एकादशी के दिन तुलसी विवाह का संकल्प सन्ध्या के समय जब भगवान सूर्य कुछ दिखाई देते हों, तब करना चाहिए। 👉 कार्तिक मास में तुलसी वन लगाने, तुलसी पौधा रोपण करने तथा तुलसी पौधा दान करने का अत्यधिक महत्त्व है।
मेरे सरकार केवल श्री राम
*कार्तिक माहात्म्य (पद्मपुराण के अनुसार) अध्याय – २५:--*
*(शूकरक्षेत्र का माहात्म्य तथा मासोपवास – व्रत की विधि)*
*महादेव जी कहते हैं – भक्तप्रवर कार्तिकेय ! अब माघ स्नान का माहात्म्य सुनो।*
*महामते ! इस संसार में तुम्हारे समान विष्णु-भक्त पुरुष नहीं हैं। चक्रतीर्थ में श्रीहरि का और मथुरा में श्रीकृष्ण का दर्शन करने से मनुष्य को जो फल मिलता है, वही माघमास में केवल स्नान करने से मिल जाता है।*
*जो जितेन्द्रिय, शान्तचित्त और सदाचारयुक्त होकर माघ मास में स्नान करता है वह फिर कभी संसार-बन्धन में नहीं पड़ता।*
*इतनी कथा सुनाकर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - सत्यभामा ! अब मैं तुम्हारे सामने शूकरक्षेत्र के माहात्म्य का वर्णन करूँगा, जिसके विज्ञान मात्र से मेरा सान्निध्य प्राप्त होता है।*
*पाँच योजन विस्तृत शूकर क्षेत्र मेरा मन्दिर (निवास स्थान) है। देवि ! जो इसमें निवास करता है, वह गदहा हो तो भी चतुर्भुजस्वरूप को प्राप्त होता है।*
*तीन हजार (३,०००) तीन सौ (३,००) तीन हाथ मेरे मन्दिर का परिमाण माना गया है।*
*देवि ! जो अन्य स्थानों में साठ हजार (६०,०००) वर्षां तक तपस्या करता है, वह मनुष्य शूकरक्षेत्र में आधे पहर तक तप करने पर ही उतनी तपस्या का फल प्राप्त कर लेता है।*
*कुरुक्षेत्र के सन्निहति [१] नामक तीर्थ में सूर्यग्रहण के समय तुला-पुरुष के दान से जो फल बताया गया है।*
*वह काशी में दस (१०) गुना, त्रिवेणी में सौ (१००) गुना और गङ्गासागर-संगम में सहस्र (हजारो) गुना कहा गया है।*
*[१] महाभारत युद्ध का स्थान हो 'सन्निहति' कहलाता है। इसी को कहीं-कहीं 'विनशन तीर्थ' भी कहा गया है।*
*किन्तु मेरे निवास भूत शूकरक्षेत्र में उसका फल अनन्तगुना समझना चाहिये।*
*भामिनि ! अन्य तीर्थों में उत्तम विधान के साथ जो लाखों दान दिये जाते हैं, शूकरक्षेत्र में एक ही दान से उनके समान फल प्राप्त हो जाता है। शूकरक्षेत्र, त्रिवेणी और गङ्गासागर-संगम में एक बार ही स्नान करने से मनुष्य की ब्रह्महत्या दूर हो जाती है।*
*पूर्वकाल में राजा अलर्क ने शूकरक्षेत्र का माहात्म्य श्रवण करके सातों द्वीपोंसहित पृथ्वी का राज्य प्राप्त किया था।*
*कार्तिकेय ने कहा - भगवन् ! मैं व्रतों में उत्तम मासोपवास-व्रत का वर्णन सुनना चाहता हूँ। साथ ही उसकी विधि एवं यथोचित फल को भी श्रवण करना चाहता हूँ।*
*महादेव जी बोले – बेटा ! तुम्हारा विचार बड़ा उत्तम है। तुमने जो कुछ पूछा है, वह सब बताता हूँ।*
*जैसे देवताओं में भगवान् विष्णु, तपनेवालों में सूर्य, पर्वतों में मेरु, पक्षियों में गरुड़, तीर्थों में गङ्गा तथा प्रजाओं में वैश्य श्रेष्ठ है, उसी प्रकार सब व्रतों में मासोपवास-व्रत श्रेष्ठ माना गया है।*
*सम्पूर्ण व्रतों से, समस्त तीर्थों से तथा सब प्रकार के दानों से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह सब मासोपवास करनेवाले को मिल जाता है।*
*वैष्णवयज्ञ के उद्देश्य से भगवान् जनार्दन की पूजा करने के पश्चात् गुरु की आज्ञा लेकर मासोपवास-व्रत करना चाहिये।*
*शास्त्रोक्त जितने भी वैष्णवव्रत हैं, उन सबको तथा द्वादशी के पवित्र व्रत को करने के पश्चात् मासोपवास-व्रत करना उचित है।*
*अतिकृच्छ्र, पराक और चान्द्रायण-व्रतों का अनुष्ठान करके गुरु और ब्राह्मण की आज्ञा से मासोपवास-व्रत करे।*
*आश्विनमास के शुक्लपक्ष की एकादशी को उपवास करके तीस (३०) दिनों के लिये इस व्रत को ग्रहण करे।*
*जो मनुष्य भगवान् वासुदेव की पूजा करके कार्तिकमास भर उपवास करता है, वह मोक्षफल का भागी होता है।*
*भगवान् के मन्दिर में जाकर तीनों समय भक्तिपूर्वक सुन्दर मालती, नील-कमल, पद्म, सुगन्धित कमल, केशर, खस, कपूर, उत्तम चन्दन, नैवेद्य और धूप-दीप आदि से श्रीजनार्दन का पूजन करे।*
*मन, वाणी और क्रिया द्वारा श्रीगरुडध्वज की आराधना में लगा रहे। स्त्री, पुरुष, विधवा - जो कोई भी इस व्रत को करे, पूर्ण भक्ति के साथ इन्द्रियों को काबू में रखते हुए दिन-रात श्रीविष्णु के नामों का कीर्तन करता रहे।*
*भक्ति पूर्वक श्रीविष्णु की स्तुति करे। झूठ न बोले। सम्पूर्ण जीवों पर दया करे। अन्त:करण को वृत्तियों को अशान्त न होने दे। हिंसा त्याग दे। सोया हो या बैठा, श्रीवासुदेव का कीर्तन किया करे।*
*अन्न का स्मरण, अवलोकन, सूंघना, स्वाद लेना, चर्चा करना तथा ग्रास को मुँह में लेना — ये सभी निषिद्ध हैं।*
*व्रत में स्थित मनुष्य शरीर में उबटन लगाना, सिर में तेल की मालिश कराना, पान खाना और चन्दन लगाना छोड़ दे तथा अन्यान्य निषिद्ध वस्तुओं का भी त्याग करे।*
*व्रत करने वाला पुरुष शास्त्रविरुद्ध कर्म करनेवाले व्यक्ति का स्पर्श न करे। उससे वार्तालाप भी न करे।*
*पुरुष, सौभाग्यवती स्त्री अथवा विधवा नारी शास्त्रोक्त विधि से एक मासतक उपवास करके भगवान् वासुदेव का पूजन करे।*
*यह व्रत गिने-गिनाये तीस (३०) दिनों का होता है, इससे अधिक या कम दिनों का नहीं ! मन को संयम में रखनेवाला जितेन्द्रिय पुरुष एक मास तक उपवास के नियम को पूरा करके द्वादशी तिथि को भगवान् गरुडध्वजका पूजन करे।*
*फूल, माला, गन्ध, धूप, चन्दन, वस्त्र, आभूषण और वाद्य आदि के द्वारा भगवान् विष्णु को संतुष्ट करे।*
*चन्दन मिश्रित तीर्थ के जल से भक्तिपूर्वक भगवान् को स्नान कराये।*
*फिर उनके अङ्गों में चन्दन का लेप करके गन्ध और पुष्पों से शृङ्गार करे।*
*फिर वस्त्र आदि का दान करके उत्तम ब्राह्मणों को भोजन कराये, उन्हें दक्षिणा दे और प्रणाम करके उनसे त्रुटियों के लिये क्षमा-याचना करे।*
*इस प्रकार मासोपवासपूर्वक जनार्दन की पूजा करके ब्राह्मणों को भोजन कराने से मनुष्य श्रीविष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है।*
*मण्डप में उपस्थित ब्राह्मणों से बारम्बार इस प्रकार कहना चाहिये 'द्विजवरो ! इस व्रत में जो कोई भी कार्य मन्त्रहीन, क्रियाहीन और सब प्रकार के साधनों एवं विधियों से हीन हुआ हो वह सब आप लोगों के वचन और प्रसाद से परिपूर्ण हो जाय।*
*कार्तिकेय ! इस प्रकार मैंने तुमसे मासोपवास की विधिका यथावत् वर्णन किया है।*
जय श्री कृष्ण
1 day ago | [YT] | 2
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मेरे सरकार केवल श्री राम
श्री हरी-विष्णु के अवतार ( धन्वन्तरि-अवतार )
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भगवान धन्वन्तरि भगवार विष्णु के अवतारों में से एक हैं। भगवान धन्वन्तरि आयुर्वेद जगत् के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता माने जाते हैं। भारतीय पौराणिक दृष्टि से 'धनतेरस' को स्वास्थ्य के देवता धन्वन्तरि का दिवस माना जाता है। धन्वन्तरि आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य देवता हैं। धनतेरस के दिन उनसे प्रार्थना की जाती है कि वे समस्त जगत् को निरोग कर मानव समाज को दीर्घायु प्रदान करें।
देवता एवं दैत्यों के सम्मिलित प्रयास के श्रान्त हो जाने पर समुद्र मन्थन स्वयं क्षीर-सागरशायी कर रहे थे। हलाहल, कामधेनु, ऐरावत, उच्चै:श्रवा अश्व, अप्सराएँ, कौस्तुभमणि, वारुणी, महाशंख, कल्पवृक्ष, चन्द्रमा, लक्ष्मी और कदली वृक्ष उससे प्रकट हो चुके थे। अन्त में हाथ में अमृतपूर्ण स्वर्ण कलश लिये श्याम वर्ण, चतुर्भुज भगवान धन्वन्तरि प्रकट हुए। अमृत-वितरण के पश्चात् देवराज इन्द्र की प्रार्थना पर भगवान धन्वन्तरि ने देव-वैद्य का पद स्वीकार कर लिया। अमरावती उनका निवास बनी। कालक्रम से पृथ्वी पर मनुष्य रोगों से अत्यन्त पीड़ित हो गये। प्रजापति इन्द्र ने धन्वन्तरि जी से प्रार्थना की। भगवान ने काशी के राजा दिवोदास के रूप में पृथ्वी पर अवतार धारण किया। इनकी 'धन्वन्तरि-संहिता' आयुर्वेद का मूल ग्रन्थ है। आयुर्वेद के आदि आचार्य सुश्रुत मुनि ने धन्वन्तरि जी से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया था।
भगवान धन्वन्तरि को आयुर्वेद के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता के रूप में जाना जाता है। आदिकाल में आयुर्वेद की उत्पत्ति ब्रह्मा से ही मानते हैं। आदिकाल के ग्रंथों में 'रामायण'-'महाभारत' तथा विविध पुराणों की रचना हुई, जिसमें सभी ग्रंथों ने 'आयुर्वेदावतरण' के प्रसंग में भगवान धन्वन्तरि का उल्लेख किया है। धन्वन्तरि प्रथम तथा द्वितीय का वर्णन पुराणों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रंथों में भी छुट-पुट रूप से मिलता है, जिसमें आयुर्वेद के आदि ग्रंथों 'सुश्रुत्रसंहिता', 'चरकसंहिता', 'काश्यप संहिता' तथा 'अष्टांग हृदय' में उनका विभिन्न रूपों में उल्लेख मिलता है।
इसके अतिरिक्त अन्य आयुर्वेदिक ग्रंथों- 'भाव प्रकाश', 'शार्गधर' तथा उनके ही समकालीन अन्य ग्रंथों में 'आयुर्वेदावतरण' का प्रसंग उधृत है। इसमें भगवान धन्वन्तरि के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है। महाकवि व्यास द्वारा रचित 'श्रीमद्भावत पुराण' के अनुसार धन्वन्तरि को भगवान विष्णु का अंश माना गया है तथा अवतारों में अवतार कहा गया है।
'महाभारत', 'विष्णुपुराण', 'अग्निपुराण', 'श्रीमद्भागवत' महापुराणादि में यह उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि देवता और असुर एक ही पिता कश्यप ऋषि के संतान थे। किंतु इनकी वंश वृद्धि बहुत अधिक हो गई थी। अतः ये अपने अधिकारों के लिए परस्पर आपस में लड़ा करते थे। वे तीनों ही लोकों पर राज्याधिकार प्राप्त करना चाहते थे। असुरों या राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य थे, जो संजीवनी विद्या जानते थे और उसके बल से असुरों को पुन: जीवित कर सकते थे। इसके अतिरिक्त दैत्य, दानव आदि माँसाहारी होने के कारण हृष्ट-पुष्ट स्वस्थ तथा दिव्य शस्त्रों के ज्ञाता थे। अतः युद्ध में असुरों की अपेक्षा देवताओं की मृत्यु अधिक होती थी।
पुरादेवऽसुरायुद्धेहताश्चशतशोसुराः।
हेन्यामान्यास्ततो देवाः शतशोऽथसहस्त्रशः।
वैद्य
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'गरुड़पुराण' और 'मार्कण्डेयपुराण' के अनुसार वेद मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण ही धन्वन्तरि वैद्य कहलाए थे। 'विष्णुपुराण' के अनुसार धन्वन्तरि दीर्घतथा के पुत्र बताए गए हैं। इसमें बताया गया है वह धन्वन्तरि जरा विकारों से रहित देह और इंद्रियों वाला तथा सभी जन्मों में सर्वशास्त्र ज्ञाता है। भगवान नारायण ने उन्हें पूर्वजन्म में यह वरदान दिया था कि काशिराज के वंश में उत्पन्न होकर आयुर्वेद के आठ भाग करोगे और यज्ञ भाग के भोक्ता बनोगे। इस प्रकार धन्वन्तरि की तीन रूपों में उल्लेख मिलता है-
समुद्र मन्थन से उत्पन्न धन्वन्तरि प्रथम धन्व के पुत्र धन्वन्तरि द्वितीय काशिराज दिवोदास धन्वन्तरि तृतीय
अन्य प्रसंग
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आयु के पुत्र का नाम धन्वन्तरि था। वह वीर यशस्वी तथा धार्मिक था। राज्यभोग के उपरांत योग की ओर प्रवृत्त होकर वह गंगा सागर संगम पर समाधि लगाकर तपस्या करने लगा। गत अनेक वर्षों से उससे त्रस्त महाराक्षस समुद्र में छुपा हुआ था। वैरागी धन्वन्तरि को देख उसने नारी का रूप धारण कर उसका तप भंग कर दिया, तदनंतर अंतर्धान हो गया। धन्वन्तरि उसी की स्मृतियों में भटकने लगा। ब्रह्मा ने उसे समस्त स्थिति से अवगत किया तथा विष्णु की आराधना करने के लिए कहा। विष्णु को प्रसन्न करके उसने इन्द्र पद प्राप्त किया, किंतु पूर्वजन्मों के कर्मों के फलस्वरूप वह तीन बार इन्द्र पद से च्युत हुआ।
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1 day ago | [YT] | 1
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मेरे सरकार केवल श्री राम
तुलसी कौन थी?
तुलसी (पौधा) पूर्व जन्म मे एक लड़की थी जिस का नाम वृंदा था, राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्त थी.बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा, पूजा किया करती थी.जब वह बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था. वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी. एक बार देवताओ और दानवों में युद्ध हुआ जब जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने कहा - स्वामी आप युद्ध पर जा रहे है आप जब तक युद्ध में रहेगे में पूजा में बैठ कर आपकी जीत के लिये अनुष्ठान करुगी,और जब तक आप वापस नहीं आ जाते, मैं अपना संकल्प नही छोडूगी। जलंधर तो युद्ध में चले गये,और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गयी, उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके, सारे देवता जब हारने लगे तो विष्णु जी के पास गये। सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि – वृंदा मेरी परम भक्त है में उसके साथ छल नहीं कर सकता । फिर देवता बोले - भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है अब आप ही हमारी मदद कर सकते है। भगवान ने जलंधर का ही रूप रखा और वृंदा के महल में पँहुच गये जैसे ही वृंदा ने अपने पति को देखा, वे तुरंत पूजा मे से उठ गई और उनके चरणों को छू लिए,जैसे ही उनका संकल्प टूटा, युद्ध में देवताओ ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काट कर अलग कर दिया,उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पडा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है? उन्होंने पूँछा - आप कौन हो जिसका स्पर्श मैने किया, तब भगवान अपने रूप में आ गये पर वे कुछ ना बोल सके,वृंदा सारी बात समझ गई, उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया आप पत्थर के हो जाओ, और भगवान तुंरत पत्थर के हो गये।
सभी देवता हाहाकार करने लगे लक्ष्मी जी रोने लगे और प्रार्थना करने लगे यब वृंदा जी ने भगवान को वापस वैसा ही कर दिया और अपने पति का सिर लेकर वे सती हो गयी उनकी राख से एक पौधा निकला तब भगवान विष्णु जी ने कहा –आज से इनका नाम तुलसी है, और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा और में बिना तुलसी जी के भोग स्वीकार नहीं करुगा। तब से तुलसी जी कि पूजा सभी करने लगे। और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में किया जाता है. देव-उठावनी एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है !```
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एक बदला तो सब कुछ बदला यकीन न हो तो देखे क्या क्या बदला 🙏
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📚 आर्यभट्ट ने शून्य की खोज की तो रामायण में रावण के दस सिर की गणना कैसे की गयी...❓️
कुछ लोग हिंदू धर्म व "रामायण" "महाभारत" "गीता" को काल्पनिक दिखाने के लिए यह प्रश्न करते है कि जब आर्यभट ने लगभग 6 वीं शताब्दी मे (शून्य/जीरो) की खोज की तो आर्यभट की खोज से लगभग 5000 हजार वर्ष पहले रामायण मे रावण के 10 सिर की गिनती कैसे की गई। और महाभारत मे कौरवो की 100 की संख्या की गिनीती कैसे की गई। जबकि उस समय लोग (जीरो) को जानते ही नही थे, तो लोगो ने गिनती को कैसे गिना!
✍️"अब मै इस प्रश्न का उत्तर दे रहा हूँ"👉
कृपया इसे पूरा ध्यान से पढे। आर्यभट्ट से पहले संसार 0(शुन्य) को नही जानता था। आर्यभट्ट ने ही (शुन्य / जीरो) की खोज की, यह एक सत्य है। लेकिन आर्यभट्ट ने "0(जीरो) की खोज 'अंको मे' की थी, 'शब्दों' में खोज नहीं की थी, उससे पहले 0 (अंक को) शब्दो मे शुन्य कहा जाता था। उस समय मे भी हिन्दू धर्म ग्रंथो मे जैसे शिव पुराण, स्कन्द पुराण आदि मे आकाश को "शुन्य" कहा गया है। यहाँ पे "शुन्य"बका मतलव अनंत से होता है। लेकिन रामायण व महाभारत काल मे गिनती अंको मे न होकर शब्दो मे होता था,और वह भी "संस्कृत" मे।
उस समय "1,2,3,4,5,6,7,8, 9,10" अंक के स्थान पे 'शब्दो' का प्रयोग होता था वह भी 'संस्कृत' के शव्दो का प्रयोग होता था। जैसे:1 = प्रथम 2 = द्वितीय 3 = तृतीय" 4 = चतुर्थ 5 = पंचम"" 6 = षष्टं" 7 = सप्तम"" 8 = अष्टम, 9 = नवंम"" 10 = दशम। "दशम = दस" यानी दशम मे "दस" तो आ गया, लेकिन अंक का 0 (जीरो/शुन्य) नही आया, रावण को दशानन कहा जाता है। 'दशानन मतलब दश+आनन =दश सिर वाला' अब देखो रावण के दस सिर की गिनती तो हो गई। लेकिन अंको का 0 (जीरो) नही आया।
इसी प्रकार महाभारत काल मे "संस्कृत" शब्द मे "कौरवो" की सौ की संख्या को "शत-शतम" बताया गया। 'शत्' एक संस्कृत का "शब्द है, जिसका हिन्दी मे अर्थ सौ (100) होता है। सौ(100) को संस्कृत मे शत् कहते है। शत = सौ इस प्रकार महाभारत काल मे कौरवो की संख्या गिनने मे सौ हो गई। लेकिन इस गिनती मे भी "अंक का 00(डबल जीरो)" नही आया,और गिनती भी पूरी हो गई। महाभारत धर्मग्रंथ में कौरव की संख्या शत बताया गया है।
रोमन में भी 1-2-3-4-5-6-7-8-9-10 की जगह पे (¡), (¡¡), (¡¡¡) पाँच को V कहा जाता है। दस को x कहा जाता है। X= दस इस रोमन x मे अंक का (जीरो/0) नही आया। और हम" दश पढ़ "भी लिए और" गिनती पूरी हो गई! इस प्रकार रोमन word मे "कही 0 (जीरो) "नही आता है। और आप भी" रोमन मे" एक से लेकर "सौ की गिनती "पढ लिख सकते है। आपको 0 या 00 लिखने की जरूरत भी नही पड़ती है। पहले के जमाने मे गिनती को शब्दो मे लिखा जाता था। उस समय अंको का ज्ञान नही था। जैसे गीता, रामायण मे 1"2"3"4"5"6 या बाकी पाठो को इस प्रकार पढा जाता है। जैसे (प्रथम अध्याय, द्वितीय अध्याय, पंचम अध्याय,दशम अध्याय... आदि!) इनके दशम अध्याय ' मतलब दशवा पाठ (10 lesson) होता है। दशम अध्याय= दसवा पाठ इसमे 'दश' शब्द तो आ गया। लेकिन इस दश मे 'अंको का 0' (जीरो)" का प्रयोग नही हुआ। बिना 0 आए पाठो (lesson) की गिनती दश हो गई।
हिंदु विरोधी और नास्तिक लोग सिर्फ अपने गलत कुतर्क द्वारा हिंदू धर्म व हिन्दू धर्मग्रंथो को काल्पनिक साबित करना चाहते है। जिससे हिंदुओं के मन मे हिंदू धर्म के प्रति नफरत भरकर और हिन्दू धर्म को काल्पनिक साबित करके, हिंदू समाज को अन्य धर्मों में परिवर्तित किया जाए। लेकिन आज का हिंदू समाज अपने धार्मिक शिक्षा को ग्रहण ना करने के कारण इन लोगो के झुठ को सही मान बैठता है। यह हमारे धर्म व संस्कृत के लिए हानि कारक है। अपनी सभ्यता पहचानें, गर्व करें की "हम सनातनी हैं", "हम भारतीय हैं"।
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*कार्तिक माहात्म्य (पद्मपुराण के अनुसार) अध्याय – २४:--*
*(कार्तिक मास मे पालन करने योग्य नियम)*
*सत्यभामा ने कहा – प्रभो ! कार्तिकमास सब मासों में श्रेष्ठ माना गया है। मैंने उसके माहात्म्य को विस्तारपूर्वक नहीं सुना। कृपया उसी का वर्णन कीजिये।*
*भगवान् श्रीकृष्ण बोले - सत्यभामे ! तुमने बड़ी उत्तम बात पूछी है। पूर्वकाल में महात्मा सूत ने शौनक मुनि से आदरपूर्वक कार्तिक व्रत का वर्णन किया था। वही प्रसङ्ग मैं तुम्हें सुनाता हूँ।*
*सूतजी ने कहा - मुनिश्रेष्ठ शौनकजी ! पूर्वकाल में कार्तिकेय जी के पूछने पर महादेवजी ने जिसका वर्णन किया था, उसको आप श्रवण कीजिये।*
*कार्तिकेय जी बोले – पिताजी ! आप वक्ताओं में श्रेष्ठ हैं। मुझे कार्तिकमास के स्नान की विधि बताइये, जिससे मनुष्य दुःख रूपी समुद्र से पार हो जाते हैं। साथ ही तीर्थ के जल का माहात्म्य और माघस्नान का फल भी बताइये।*
*महादेव जी ने कहा - एक ओर सम्पूर्ण तीर्थ, समस्त दान, दक्षिणाओं सहित यज्ञ, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, हिमालय, अक्रूरतीर्थ, काशी और शूकरक्षेत्र में निवास तथा दूसरी ओर केवल कार्तिकमास हो तो वही भगवान् केशव को सर्वदा प्रिय है।*
*जिसके हाथ, पैर, वाणी और मन वश में हों तथा जिसमें विद्या, तप और कीर्ति विद्यमान हों, वही तीर्थ के पूर्ण फल को प्राप्त करता है।*
*श्रद्धारहित, नास्तिक, संशयालु और कोरी तर्कबुद्धि का सहारा लेनेवाले मनुष्य तीर्थसेवन के फल भागी नहीं होते।*
*जो ब्राह्मण सबेरे उठकर सदा प्रात:स्नान करता है, वह सब पापों से मुक्त हो परमात्मा को प्राप्त होता है।*
*षडानन ! स्नान का महत्त्व जानने वाले पुरुषों ने चार प्रकार के स्नान बतलाये हैं वायव्य, वारुण, ब्राह्म और दिव्य।*
*यह सुनकर सत्यभामा बोली – प्रभो ! मुझे चारों स्नानों के लक्षण बतलाइये।*
*भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - प्रिये! गोधूलिद्वारा किया हुआ स्नान वायव्य कहलाता है, सागर आदि जलाशयों में किये हुए स्नान को वारुण कहते हैं, 'आपो हि ष्ठा मयो' आदि ब्राह्मण – मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक जो मार्जन किया जाता है।*
*उसका नाम ब्राह्म है तथा बरसते हुए मेघ के जल और सूर्य की किरणों से शरीर की शुद्धि करना दिव्य स्नान माना गया है।*
*सब प्रकार के स्त्रानों में वारुण स्नान श्रेष्ठ है।*
*ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य मन्त्रोच्चारण पूर्वक स्नान करें। परन्तु शूद्र और स्त्रियों के लिये बिना मन्त्र के ही स्नान का विधान है।*
*बालक, युवा, वृद्ध, पुरुष, स्त्री और नपुंसक - सब लोग कार्तिक और माघ में प्रात:स्नान की प्रशंसा करते हैं। कार्तिक में प्रात:काल स्नान करनेवाले लोग मनोवाञ्छित फल प्राप्त करते हैं।*
*कार्तिकेय जी बोले - पिताजी! अन्य धर्मों का भी वर्णन कीजिये, जिनका अनुष्ठान करने से मनुष्य अपने समस्त पाप धोकर देवता बन जाता है।*
*महादेव जी ने कहा – बेटा ! कार्तिकमास को उपस्थित देख जो मनुष्य दूसरे का अन्न त्याग देता है, वह प्रतिदिन कृच्छ्रव्रत का फल प्राप्त करता है।*
*कार्तिक में तेल, मधु, काँसे के बर्तन में भोजन और मैथुन का विशेषरूप से परित्याग करना चाहिये।*
*एक बार भी मांस भक्षण करने से मनुष्य राक्षस की योनि में जन्म पाता है और साठ हजार (६०,०००) वर्षां तक विष्ठा में डालकर सड़ाया जाता है। उससे छुटकारा पाने पर वह पापी विष्ठा खाने वाला ग्राम-शूकर होता है।*
*कार्तिकमास में शास्त्रविहित भोजन का नियम करने पर अवश्य ही मोक्ष प्राप्त होता है। भगवान् विष्णु का परमधाम ही मोक्ष है।*
*कार्तिक के समान कोई मास नहीं है, श्रीविष्णु से बढ़कर कोई देवता नहीं है, वेद के तुल्य कोई शास्त्र नहीं है, गङ्गा के समान कोई तीर्थ नहीं है।*
*सत्य के समान सदाचार, सत्ययुग के समान युग, रसना के तुल्य तृप्ति का साधन, दान के सदृश सुख, धर्म के समान मित्र और नेत्र के समान कोई ज्योति नहीं है [१]।*
[१] .... । प्रवृत्तानां तु भक्षाणां कार्तिके नियमे कते।। अवश्यं प्राप्यते मोक्षो विष्णोस्तत्परमं पदम् । न कार्तिकसमो मासो न देव: केशवात्परः॥ न वेदसदृशं शास्त्रं न तीर्थं गङ्गया समम्। न सत्येन समं वृत्तं न कृतेन समं युगम् ।।
*स्नान करने वाले पुरुषों के लिये समुद्रगामिनी पवित्र नदी प्राय: दुर्लभ होती है।*
*कुल के अनुरूप उत्तम शीलवाली कन्या, कुलीन और शीलवान् दम्पति, जन्मदायिनी माता, विशेषतः पिता, साधु पुरुषों के सम्मान का अवसर, धार्मिक पुत्र, द्वारका का निवास, भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन, गोमती का स्नान और कार्तिक का व्रत - ये सब मनुष्य के लिये प्रायः दुर्लभ हैं।*
*चन्द्रमा और सूर्य के ग्रहणकाल में ब्राह्मणों को पृथ्वी दान करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, वह कार्तिक में भूमि पर शयन करने वाले पुरुष को स्वतः प्राप्त हो जाता है।*
*ब्राह्मण-दम्पति को भोजन कराये, चन्दन आदि से उनकी पूजा करे। कम्बल, नाना प्रकार के रत्न और वस्त्र दान करे। ओढ़ने के साथ ही बिछौना भी दे।*
*तुम्हें कार्तिकमास में जूते और छाते का भी दान करना चाहिये।*
*कार्तिकमास में जो मनुष्य प्रतिदिन पत्तल में भोजन करता है, वह चौदह (१४) इन्द्रों की आयुपर्यन्त कभी दुर्गति में नहीं पड़ता। उसे सम्पूर्ण कामनाओं तथा समस्त तीर्थों का फल प्राप्त होता है।*
*पलाश के पत्ते पर भोजन करने से मनुष्य कभी नरक नहीं देखता; किन्तु वह पलाश के बिचले पत्र का अवश्य त्याग कर दे।*
*कार्तिक में तिल का दान, नदी का स्नान, सदा साधु पुरुषों का सेवन और पलाश के पत्तों में भोजन सदा मोक्ष देनेवाला है।*
*कार्तिक के महीने में मौन-व्रत का पालन, पलाश के पत्ते में भोजन, तिलमिश्रित जलसे स्नान, निरन्तर क्षमा का आश्रय और पृथ्वी पर शयन करनेवाला पुरुष युग युग के उपार्जित पापों का नाश कर डालता है।*
*जो कार्तिकमास में भगवान् विष्णु के सामने उषाकाल तक जागरण करता है, उसे सहस्र गोदानों का फल मिलता है।*
*पितृपक्ष में अन्नदान करने से तथा ज्येष्ठ और आषाढ मास में जल देने से मनुष्यों को जो फल मिलता है, वह कार्तिक में दूसरों का दीपक जलाने मात्र से प्राप्त हो जाता है।*
न तृप्ती रसनातुल्या न दानसदृशं सुखम् । न धर्मसदृशं मित्रं न ज्योतिश्चक्षुषा समम् ॥ (१२०। २२-२५)
*जो बुद्धिमान् कार्तिक में मन, वाणी और क्रिया द्वारा पुष्कर-तीर्थ का स्मरण करता है, उसे लाखों-करोड़ों गुना पुण्य होता है।*
*माघ मास में प्रयाग, कार्तिक में पुष्कर और वैशाख मास में अवन्तीपुरी (उज्जैन) - ये एक युगतक उपार्जित किये हुए पापों का नाश कर डालते हैं।*
*कार्तिकेय ! संसार में विशेषतः कलियुग में वे ही मनुष्य धन्य हैं जो सदा पितरों के उद्धार के लिये श्रीहरि का सेवन करते हैं।*
*बेटा ! बहुत से पिण्ड देने और गया में श्राद्ध आदि करने की क्या आवश्यकता है। वे मनुष्य तो हरिभजन के ही प्रभाव से पितरों का नरक से उद्धार कर देते हैं।*
*यदि पितरों के उद्देश्य से दूध आदि के द्वारा भगवान् विष्णु को स्नान कराया जाय तो वे पितर स्वर्ग में पहुँचकर कोटि कल्पों तक देवताओं के साथ निवास करते हैं।*
*जो कमल के एक फूल से भी देवेश्वर भगवान् लक्ष्मीपति का पूजन करता है, वह एक करोड़ वर्षतक के पापों का नाश कर देता है।*
*देवताओं के स्वामी भगवान् विष्णु कमल के एक पुष्प से भी पूजित और अभिवन्दित होने पर एक हजार सात सौ अपराध क्षमा कर देते हैं।*
*षडानन ! जो मुख में, मस्तक पर तथा शरीर में भगवान् की प्रसाद भूता तुलसी को प्रसन्नता पूर्वक धारण करता है, उसे कलियुग नहीं छूता।*
*भगवान् विष्णु को निवेदन किये हुए प्रसाद से जिसके शरीर का स्पर्श होता है, उसके पाप और व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं।*
*जो शङ्ख का जल, श्रीहरि को भक्तिपूर्वक अर्पण किया हुआ नैवेद्य, चरणोदक, चन्दन तथा प्रसादस्वरूप धूप - ये ब्रह्महत्या का भी पाप दूर करनेवाले हैं।*
जय श्री कृष्ण
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मेरे सरकार केवल श्री राम
👉 आज रविवार को एकादशी व्रत (वैष्णव) व तुलसी विवाह है।
👉 वैकुण्ठ चतुर्दशी 4 नवम्बर मङ्गलवार को है।
👉 कार्तिक कृष्णपक्ष की चतुर्दशी 'नरक चतुर्दशी' और शुक्लपक्ष की चतुर्दशी 'वैकुण्ठ चतुर्दशी' कहलाती है।
👉 वैकुण्ठ चतुर्दशी के दिन अपर रात्रि में हरिहर (विष्णु - शिव) का मिलन हुआ था।
👉 वैकुण्ठ चतुर्दशी के दिन ही काशी के मणिकर्णिका घाट पर भगवान शिव ने विष्णु को करोड़ों सूर्य की प्रभा के समान कान्तिमान सुदर्शन चक्र प्रदान किया था।
👉 तभी से प्रत्येक वैकुण्ठ चतुर्दशी की अपर रात्रि में भगवान शिव और भगवान विष्णु मिलते हैं।
👉 आज से पूर्णिमा तक पॉंच दिन प्रतिदिन आकाशदीप प्रज्ज्वलित करना चाहिए।
👆 इन पॉंच दिनों में बहुत से बीज हों ऐसे फलों का सेवन तथा चावल, सभी प्रकार की दाल, लौकी, गाजर, बैंगन, वनभंटा (ऊॅंट कटारा), बासी अन्न, भॅंसीड़, मसूर, दोबार भोजन, मदिरा, पराया अन्न, कॉंजी, छत्राक, दुर्गन्धित पदार्थ, लसोड़े का फल, प्याज, श्रृङ्ग (सिंघाड़ा), सेज, बेर, राई, चिवड़ा आदि का सेवन निषेध है।
👉 इन पॉंच दिनों में केला, ऑंवला, वस्त्र, अन्न, शैय्या (बिछावन), जूता - चप्पल, छाता, ऊनी वस्त्र, तुलसी पौधा, शालग्रामशिला एवं दीप के दान का अत्यधिक महत्त्व है।
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*आज रविवार 2 नवम्बर 2025 के व्रत - पर्व - उत्सव*
*हरि प्रबोधिनी एकादशी व्रत (वैष्णव), तुलसी विवाह, चातुर्मास पूर्ण*
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मेरे सरकार केवल श्री राम
_*देवोत्थान / प्रोबोधिनी एकादशी पे आज विशेष*_
पावन देवोत्थान एकादशी एवं तुलसी विवाह की आप सभी को हार्दिक बधाई तथा शुभकामनाएं।
भगवान शालिग्राम और माँ तुलसी की कृपा से आपके जीवन में सदैव सुख, शान्ति, समृद्धि, बनी रहे आपकी समस्त मनोकामनाएं पूरी हों।
सनातन धर्मशास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु चार महीने के विश्राम के बाद पुनः धरती का कार्यभार संभालने के लिए कार्तिक मास शुक्लपक्ष की एकादशी तिथि को योगनिद्रा से जागते है, और इसी के साथ चतुर्मास समाप्त हो जाता है। इसी दिन से सभी मंगल कार्य शुभारंभ हो जाते हैं, इस दिन भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की पूजा तथा शालीग्राम और तुलसी का विवाह भी किया जाता है।
_कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी देवउत्थान/ प्रबोधिनी एकादशी कहलाती हैं। इस एकादशी को देवोतथान या देवउठनी एकादशी भी कहते है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन को श्री विष्णु अपना चार मास के विश्राम के पश्चात जागते हैं।_
*देवउत्थान एकादशी व्रत महात्म्य*
प्रबोधिनी’ का महात्म्य पाप का नाश, पुण्य की वृद्धि तथा उत्तम बुद्धि वाले पुरुषों को मोक्ष प्रदान करने वाला है। एकादशी को एक ही उपवास कर लेने से मनुष्य हजार अश्वमेघ तथा सौ राजसूय यज्ञ का फल पा लेता है। जो दुर्लभ है, जिसकी प्राप्ति असम्भव है तथा जिसे त्रिलोकी में किसी ने भी नहीं देखा है, ऐसी वस्तु के लिये भी याचना करने पर ‘प्रबोधिनी’ एकादशी उसे दे देती है। भक्तिपूर्वक उपवास करने पर मनुष्यों को ‘हरिबोधिनी’ एकादशी ऐश्वर्य, सम्पति, उत्तम बुद्धि, राज्य तथा सुख प्रदान करती है। मेरूपर्वत के समान जो बड़े-बड़े पाप है , उन सबको यह पापनाशिनी ‘प्रबोधिनी’ एक ही उपवास में भस्म कर देती है। जो लोग ‘प्रबोधिनी’ एकादशीका मन से ध्यान करते तथा जो इसके व्रत का अनुष्ठान करते हैं, उनके पितर नरक के दु:खों से छुटकारा पाकर भगवान विष्णु के परम धाम को चले जाते हैं। जो ‘ प्रबोधिनी’ एकादशी के दिन श्रीविष्णु की कथा श्रवण करता है, उसे सातों द्वीपों से युक्त पृथ्वी दान करने का फल प्राप्त होता है। इस एकादशी के दिन तुलसी विवाहोत्सव भी मनाया जाता है।
*पूजन सामग्री*
श्री विष्णु जी की मूर्ति, वस्त्र, पुष्प, पुष्पमाला, नारियल, सुपारी, अन्य ऋतुफल, धूप, दीप, घी, पंचामृत (कच्चा दूध,दही,घी,शहद और शक्कर का मिश्रण), अक्षत, तुलसी दल, चंदन, मिष्ठान।
*विधि*
दशमी तिथि को सात्विक भोजन ग्रहण करें। ब्रह्मचर्य का पालन करें। एकादशी के दिन प्रात:काल उठकर नित्य क्रम कर स्नान कर लें। स्वच्छ वस्त्र धारण करें। पूजा गृह को शुद्ध कर लें। आसन पर बैठ जाये। एकादशी को देवदेवेश्वर भगवान विष्णु का पूजन करें। देवउत्थान/ प्रबोधिनी एकादशी व्रत की कथा सुने अथवा सुनाये। आरती करें। उपस्थित लोगों में प्रसाद वितरित करें। रात्रि जागरण करें। द्वादशी के दिन प्रात:काल उठकर स्नान करें। श्रीविष्णु भगवान की पूजा करें। ब्राह्मणों को भोजन करायें। उसके उपरांत स्वयं भोजन ग्रहण करें।
*देवोत्थान-प्रबोधिनी एकादशी की महिमा👇*
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा :- हे अर्जुन ! मैं तुम्हें मुक्ति देने वाली कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के सम्बन्ध में नारद और ब्रह्माजी के बीच हुए वार्तालाप को सुनाता हूँ । एक बार नारादजी ने ब्रह्माजी से पूछा : ‘हे पिता ! ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के व्रत का क्या फल होता है, आप कृपा करके मुझे यह सब विस्तारपूर्वक बतायें ।’
ब्रह्माजी बोले : हे पुत्र ! जिस वस्तु का त्रिलोक में मिलना दुष्कर है, वह वस्तु भी कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के व्रत से मिल जाती है । इस व्रत के प्रभाव से पूर्व जन्म के किये हुए अनेक बुरे कर्म क्षणभर में नष्ट हो जाते है । हे पुत्र ! जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इस दिन थोड़ा भी पुण्य करते हैं, उनका वह पुण्य पर्वत के समान अटल हो जाता है । उनके पितृ विष्णुलोक में जाते हैं।
हे नारद ! मनुष्य को भगवान की प्रसन्नता के लिए कार्तिक मास की इस एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए । जो मनुष्य इस एकादशी व्रत को करता है, वह धनवान, योगी, तपस्वी तथा इन्द्रियों को जीतने वाला होता है, क्योंकि एकादशी भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है ।
इस एकादशी के दिन जो मनुष्य भगवान की प्राप्ति के लिए दान, तप, होम, यज्ञ ( भगवान्नामजप भी परम यज्ञ है। ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ । यज्ञों में जपयज्ञ मेरा ही स्वरुप है।’ - श्रीमद्भगवदगीता ) आदि करते हैं, उन्हें अक्षय पुण्य मिलता है एवं उसके सात जन्मों के शारीरिक, वाचिक और मानसिक पाप नष्ट हो जाते हैं।
*देवउठनी एकादशी व्रत कथा :–*
*कथा - 1*
पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार लक्ष्मी ने विष्णु से कहा, ‘हे नाथ! आप दिन-रात जागते हैं और फिर लाखों-करोड़ों वर्षों तक सो जाते हैं तथा उस समय समस्त चराचर का नाश भी कर डालते हैं। आप नियम से प्रतिवर्ष निद्रा लिया करें। इससे मुझे भी कुछ समय विश्राम करने का समय मिल जाएगा।’ विष्णु मुस्कुराए और बोले, ‘देवी तुमने ठीक कहा है।
मेरे जागने से सब देवों को खासकर तुमको कष्ट होता है। तुम्हें मेरी सेवा से जरा भी अवकाश नहीं मिलता इसलिए अब मैं प्रति वर्ष चार मास शयन किया करूंगा। उस समय तुमको और देवगणों का अवकाश होगा। मेरी यह निद्रा अल्पनिद्रा कहलाएगी। यह मेरे भक्तों को परम मंगलकारी उत्सवप्रद तथा पुण्यवर्धक होगी।
*कथा - 2*
नारदजी ने ब्रह्माजी से प्रबोधिनी एकादशी के व्रत का फल बताने का कहा। ब्रह्माजी ने सविस्तार बताया, हे नारद! एक बार सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र ने स्वप्न में ऋषि विश्वमित्र को अपना राज्य दान कर दिया है। अगले दिन ऋषि विश्वमित्र दरबार में पहुंचे तो राजा ने उन्हें अपना सारा राज्य सौंप दिया। ऋषि ने उनसे दक्षिणा की पाँच सौं स्वर्ण मुद्राएँ और माँगी। दक्षिणा चुकाने के लिए राजा को अपनी पत्नी एवं पुत्र तथा स्वयं को बेचना पड़ा। राजा को एक डोम ने खरीदा था। डोम ने राजा हरिशचन्द्र को श्मशान में नियुक्त करके मृतकों के सम्बन्धियों से कर लेकर, शव दाह करने का कार्य सौंपा था। उनको जब यह कार्य करते हुए कई वर्ष बीत गए तो एक दिन अकस्मात् उनकी गौतम ऋषि से भेंट हो गई। राजा ने उनसे अपने ऊपर बीती सब बातें बताई तो मुनि ने उन्हें इसी अजा (प्रबोधिनी) एकादशी का व्रत करने की सलाह दी।
राजा ने यह व्रत करना आरम्भ कर दिया। इसी बीच उनके पुत्र रोहिताश का सर्प के डसने से स्वर्गवास हो गया। जब उसकी माता अपने पुत्र को अन्तिम संस्कार हेतु श्मशान पर लायी तो राजा हरिशचन्द्र ने उससे श्मशान का कर माँगा। परन्तु उसके पास श्मशान कर चुकाने के लिए कुछ भी नहीं था। उसने चुन्दरी का आधा भाग देकर श्मशान का कर चुकाया। तत्काल आकाश में बिजली चमकी और प्रभु प्रकट होकर बोले, ‘महाराज! तुमने सत्य को जीवन में धारण करके उच्चतम आदर्श प्रस्तुत किया है। तुम्हारी कर्तव्य निष्ठ धन्य है। तुम इतिहास में सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र के नाम से अमर रहोगे।’ भगवत्कृपा से राजा हरिशचन्द्र का पुत्र जीवित हो गया। तीनों प्राणी चिरकाल तक सुख भोगकर अन्त में स्वर्ग को चले गए।
*एकादशी सेवा*
इस एकादशी के दिन जो मनुष्य भगवान की प्राप्ति के लिए दान, तप, होम, यज्ञ आदि करते हैं, उन्हें अक्षय पुण्य मिलता है एवं उसके सात जन्मों के शारीरिक, वाचिक और मानसिक पाप नष्ट हो जाते हैं।
भगवान श्री विष्णु की कृपा से संपूर्ण सृष्टि का कल्याण हो, सभी का जीवन संकट मुक्त, सुख-समृद्धि एवं आरोग्यता से परिपूर्ण हो, यही प्रार्थना है।
*जय श्री हरि* 🙏
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मेरे सरकार केवल श्री राम
जय श्री राम🙏❤🙏 कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी के बाद कार्तिक पूर्णिमा तक कभी भी आप कर सकते है शाली ग्राम के साथ तुलसी माँ का विवाह इसलिए सदा बोले, हमेशा बोले जय श्री राम,जय जय श्री राम🙏❤🙏
3 days ago | [YT] | 3
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मेरे सरकार केवल श्री राम
👉 कार्तिक मास में तुलसी वृक्ष के समीप शालग्राम या भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करना चाहिए।
👉 यद्यपि तुलसी वृक्ष उपलब्ध न हो तो ऑंवला वृक्ष के नीचे उक्त शुभ पूजा की जा सकती है।
👉 समुद्र मन्थन के दौरान जब भगवान विष्णु धन्वन्तरि के रूप में अमृत कलश लेकर आए, तब उनके प्रेमाश्रु की कुछ बून्दें अमृत कलश पर पड़ीं तो वहॉं गोलाकार तुलसी (वृन्दा) प्रकट हो गईं।
👉 कालान्तर में किसी प्रसंगवश वृन्दा की भस्म में पार्वती के बीज से तुलसी वृक्ष के रूप में प्रकट हुईं।
👉 तुलसी विवाह कार्तिक शुक्ल प्रबोधिनी एकादशी को किया जाता है, किन्तु विवाह उत्सव का आरम्भ कार्तिक शुक्ल नवमी से होता है।
👉 एकादशी के दिन तुलसी विवाह का संकल्प सन्ध्या के समय जब भगवान सूर्य कुछ दिखाई देते हों, तब करना चाहिए।
👉 कार्तिक मास में तुलसी वन लगाने, तुलसी पौधा रोपण करने तथा तुलसी पौधा दान करने का अत्यधिक महत्त्व है।
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5 days ago | [YT] | 1
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