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जो व्यक्ति बचपन मे द्वेष आदि करता उसका वो द्वेष बड़े होते हुए बहुत अधिक हो जाता है और उसे पता भी नही चलता और वह विनाश कृत्य करता बुद्धि हीन होते चला जाएगा। और जो व्यक्ति प्यार, मित्र दुसरो के लिए मदद करना उसका व गुण बड़ता है जैसे श्री कृष्ण और राम।
SATYA SIDDHANT
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2 months ago | [YT] | 2
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SATYA SIDDHANT
अगला विषय महत्वपूर्ण विषय स्त्री के स्वरूप ज्ञान प्रकाश रूप गुण पर चर्चा। 20 –30 min video coming soon loading 🆓🎙️🖋️🤸👬👫🤰🤱🧑🍼🌿🌻🌄🌅🍏🛖⛺🏡🛤️🎥⏰🏺🔑🇮🇳
3 months ago | [YT] | 4
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SATYA SIDDHANT
##🌞 **"सूर्य और बादल: अधूरे ज्ञान से पूर्णता की यात्रा"**
### — एक वैदिक प्रतीकात्मक सामाजिक विचार प्रवचन
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### 🔱 **1. इंद्र और वृत्रासुर: केवल देवासुर संग्राम नहीं, मनुष्य के भीतर का संघर्ष**
इंद्र और वृत्रासुर का युद्ध केवल आकाश में नहीं हुआ — वह हर समय हमारे भीतर हो रहा है।
इंद्र कौन है? — **प्रकाश का पोषक, ज्ञान का धारक।**
वृत्रासुर कौन है? — **जो अवरोध उत्पन्न करता है, अधूरे ज्ञान में जीता है, अपने अहं में दूसरों को दबा देता है।**
जब हम परिश्रम नहीं करते, अधूरे ज्ञान के बल पर दूसरों को रोकते हैं, तो हम स्वयं वृत्रासुर हो जाते हैं।
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### ☁ **2. बादल और सूर्य: दो प्रतीक, दो प्रवृत्तियाँ**
बादल — जो सूर्य की किरणों को रोकता है।
सूर्य — जो छेदन करता है, प्रकाश देता है, भीतर तक प्रवेश करता है।
> "बादल की तरह वह मनुष्य है, जो अधूरे ज्ञान में जीता है, दूसरों को मार्ग नहीं दिखाता, स्वयं न सीखता है, न सिखाता है।"
परंतु सूर्य — जो दूसरों को सिखाता है, स्वयं भी जलता है, और जग को भी प्रकाश देता है।
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### 🧠 **3. अधूरा ज्ञान = अशांति, पूर्णता = प्रकाश**
> "जो मनुष्य परिस्थिति को समझे बिना निर्णय लेता है, वह असुर होता है।"
* अधूरा ज्ञान दूसरों को गिराता है।
* पूर्ण ज्ञान दूसरों को उठाता है।
🌿 यदि हम सूर्यवत परिश्रमी होंगे, तो हम दूसरों को भी परिश्रमी बनाएंगे।
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### 🧱 **4. जब आप दूसरों को रोकते हैं, आप मेघ बन जाते हैं। जब आप दूसरों को मार्ग देते हैं, आप सूर्य बनते हैं।**
> "अपने टैलेंट को साझा कीजिए — यही 'वृत्र-वध' है।"
जिस समाज में **ज्ञान रोका जाएगा**, वहां **बेरोजगारी**, **ईर्ष्या**, **अत्याचार** पनपेंगे।
जहां **ज्ञान का प्रवाह होगा**, वहां **शांति**, **समृद्धि**, **धैर्य** और **संतोष** होगा।
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### 💧 **5. जल का चक्र: परिश्रम और तप का प्रतीक**
बादल सूर्य से जल उठाता है, फिर उसे नदियों में छोड़ता है —
यह तपस्या है।
यह त्याग है।
> "परिश्रम वह प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति कष्टों को सोखता है और समाज को अमृतवर्षा देता है।"
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### 🌱 **6. समाज निर्माण = परिश्रमी मनुष्यों का योग**
जो व्यक्ति यह समझ लेता है कि:
* दुःख स्थायी नहीं,
* कष्ट में भी सुख की संभावना है,
* और हर परिस्थिति सिखाने आई है —
वही सच्चा **साधक** है।
वही सूर्य है।
वही समाज को **निर्माण** देगा, **विनाश** नहीं।
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### ⚡ **7. परिवर्तन की कुंजी: प्रकाश के साथ चलना, आकाश को मत पूजो, उसे समझो**
> "इंद्रियाँ ईश्वर नहीं हैं — वे उपकरण हैं।
> उनसे गुलाम मत बनो — उन्हें साधक बनाओ।"
वृत्रासुर वही है जो इंद्रियों के पीछे भागता है।
इंद्र वही है जो **प्राणों की ऊर्जा को सही दिशा में लगाता है।**
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### ✨ **8. अधूरे ज्ञान से छुटकारा = गुरुत्व की खोज**
> "जो स्वयं टालता है, वही असत्य में भटकता है।"
* जो अपने दोष को देखता है, वह सुधारता है।
* जो दोष को ही सत्य मानता है, वह असुर बनता है।
**सूर्य ही गुरु है** — जो **छिपी हुई सीख को उजागर करता है।**
इसलिए, **ज्ञान लो**, **परिश्रम करो**, **प्रकाश फैलाओ।**
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### 🕊 **9. परिश्रम ही धर्म है, और यही असली यज्ञ है**
> "वृत्रासुर को मारने का तात्पर्य है — अपने भीतर के आलस्य, अधूरेपन, डर और दिखावे को समाप्त करना।"
* जो परिश्रम करेगा, वह कभी गिरता नहीं।
* जो दूसरों को परिश्रम से भागने की सीख देगा, वह खुद भी गिरेगा।
#IndraVsVritra #InnerBattle #SpiritualWisdom #BeTheSun
#IncompleteKnowledge #SymbolismOfSunAndClouds #VedicPhilosophy
#AryaPath #SelfMastery #InnerLight #SpiritualGrowth
https://youtu.be/-9rfDTGNbSg
6 months ago | [YT] | 8
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SATYA SIDDHANT
बृहदारण्यक उपनिषद् – चतुर्थ अध्याय, तृतीय ब्राह्मण
श्लोक 3: प्राण ही ब्रह्म है
प्राणो वै ब्रह्मेति। (बृहदारण्यक उपनिषद् 4.3.3)
हिंदी अनुवाद: प्राण ही ब्रह्म है।
स्वामी नारायण सरस्वती की व्याख्या: प्राण समस्त इंद्रियों का आधार है। इसके बिना कोई भी इंद्रिय कार्य नहीं कर सकती। अतः प्राण को ब्रह्म के रूप में समझना चाहिए, क्योंकि यह समस्त जीवों में व्याप्त है और चेतना का स्रोत है।
श्लोक 6: आत्मा ही ज्योति है
आत्मैवास्य ज्योतिर्भवति। (बृहदारण्यक उपनिषद् 4.3.6)
हिंदी अनुवाद: आत्मा ही उसकी ज्योति होती है।
स्वामी नारायण सरस्वती की व्याख्या: जब बाह्य प्रकाश स्रोत जैसे सूर्य, चंद्रमा, अग्नि और वाणी शांत हो जाते हैं, तब आत्मा ही प्रकाश का स्रोत बनती है। यह आत्मा ही व्यक्ति को मार्गदर्शन देती है और उसके कर्मों का आधार बनती है।
श्लोक 7: आत्मा का स्वरूप
योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्यन्तर्योतिः पुरुषः। (बृहदारण्यक उपनिषद् 4.3.7)
हिंदी अनुवाद: यह विज्ञानमय पुरुष, जो प्राणों में स्थित है और हृदय के भीतर ज्योतिर्मय है।
स्वामी नारायण सरस्वती की व्याख्या: यह आत्मा विज्ञानमय है, अर्थात् ज्ञान से परिपूर्ण है। यह प्राणों में स्थित होकर हृदय के भीतर ज्योति के रूप में विद्यमान है। यह आत्मा ही व्यक्ति को स्वप्न और जाग्रत अवस्थाओं में मार्गदर्शन करती है।
🧘♂️ निष्कर्ष
स्वामी नारायण सरस्वती के अनुसार, बृहदारण्यक उपनिषद् के चतुर्थ अध्याय में आत्मा और प्राण के बीच के संबंध को स्पष्ट किया गया है। प्राण को ब्रह्म के रूप में स्वीकार करते हुए, यह बताया गया है कि आत्मा ही ज्योति का स्रोत है और वही व्यक्ति को जीवन के विभिन्न अवस्थाओं में मार्गदर्शन करती है।
यदि आप इन श्लोकों की और गहराई से व्याख्या चाहते हैं या किसी विशेष श्लोक पर चर्चा करना चाहते हैं, तो कृपया बताएं।https://youtu.be/g5xjpaMaZg0?si=v6-Ch...
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6 months ago (edited) | [YT] | 15
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SATYA SIDDHANT
"बचपन की वह भूली हुई धरती"
न जाने वह बचपन कहाँ विलीन हो गया —
जहाँ प्रकृति हमारी अपनी थी।
उससे हमारा सहज आकर्षण था —
आकाश हमारा था, धरती भी हमारी थी।
वर्षा की बूँदें ईश्वर का गीत लगती थीं,
और वायु जैसे स्वयं कोई देवता हमारे कानों में कहानियाँ फूँकता हो।
हमारे देव हमारे अपने थे —
जो चाहे, वह मन में रच लेती कल्पना।
जहाँ आनंद आता, वहाँ हम रुक जाते।
विचारों की उड़ान से जहाँ भी पहुँचते,
वहीं अपना एक छोटा-सा संसार बसा लेते।
नफरत की घाटियों से बहुत दूर,
एक ऐसा बसेरा था —
जहाँ शाम रंगीन होती, और सवेरा सुगंधमय।
एकांत भी वहां उत्सव था —
बिना किसी अनुमति के,
स्वयं की ही दुनिया में मग्न रहते।
हमारा खेल हमारा था,
घर हमारा —
उसमें काम भी हमारा ही था,
और भोजन भी हमारी कल्पना का स्वाद होता।
वहाँ न कोई बाधा थी,
और यदि कोई बाधा आ भी जाती —
तो उसका भी निवारण हमारी ही मुस्कान में समाहित था।
वह जीवन ईश्वर की विशेष कला था —
जहाँ न्यून में अधिक मिलता था,
और अल्प में भी अपार संतोष होता था।
गरीबी में भी,
अपनों के लिए मन, स्नेह और त्याग से
एक अमीर आत्मा जीती थी।
यह बचपन की भूमि थी —
जहाँ भावनाएँ निर्मल थीं,
जहाँ हर ऋतु, हर रंग, हर गंध,
हमारी आत्मा का उत्सव थी।
आकर्ष आर्य
7 months ago | [YT] | 9
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SATYA SIDDHANT
गृहस्थ की उज्जवल परंपरा satya siddhant द्वारा प्रकाशित हुई है जिसको प्राप्त करना है वह संदेश भेज सकता हैं इस पुस्तक का संकलन वेद आदि ग्रंथ से संबंधित और प्रभावित होकर के किया गया है आप इसको लघु इबुक को जिसमें लगभग 8 विचार लेख हैं।
7 months ago | [YT] | 5
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SATYA SIDDHANT
आकर्ष आर्य: यह लघु e book पुस्तक satya siddhant द्वारा प्रकाशित की गई की जिसको प्राप्त करनी है वह न्यूनतम 100 rs sahyog राशि दे कर प्राप्त कर सकता है ।आकर्ष आर्य: केवल 12 pages।
7 months ago | [YT] | 2
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SATYA SIDDHANT
“मेरा वह बचपन कहाँ गया...”
✍️ आकर्ष वैदिक
मेरा वह बचपन कहाँ गया — जो ऊर्जा का स्रोत बनकर चाहता था कि सभी के भीतर उत्साह और आनंद की लहर दौड़ जाए। उस समय कोई प्रतियोगिता न थी — न तुलना, न छल। बस यह भावना थी कि मैं जल्दी से कुछ अच्छा करूँ, और वह सत्य व शुद्ध मन से हो।
अपने ही पात्र, अपनी ही शिक्षा
यह जीवन के अध्याय में जो पात्र हैं — ये कोई बाहरी नहीं, ये अपने ही हैं। और जो शिक्षा विद्या गुरु द्वारा मिल रही है — वह भी अपनी हैं अपनों की ही दी हुई है। फिर... अपनों में कैसा धोखा? अपनों से कैसी जलन? क्या अपनों से बेहतर बनने की होड़ ही हमारा उद्देश्य है? नहीं — हमें अपनों से बेहतर नहीं, अपनों (आर्य समाज)के लिए श्रेष्ठ बनना है।
दृष्टिकोण का परिवर्तन
अब यह नहीं देखना कि कोई क्या कह रहा है — बल्कि यह सोचना है कि मैं क्या कर सकता हूँ, क्योंकि जब तक मनुष्य स्वयं श्रेष्ठ नहीं बनता, वह किसी के लिए भी उपयोगी नहीं बन सकता।
अपनों की शक्ति — मेरा उत्तरदायित्व
मैं अपने जैसे लोगों की शक्ति को बढ़ा रहा हूँ। जो कर रहा हूँ — वह मेरा है। जिसके लिए कर रहा हूँ — वह भी मेरा है। और जो पा रहा हूँ — वह भी मेरा ही है।
यह जीवन अब प्रतिस्पर्धा का नहीं, संवेदनशीलता, आत्मबल और समाज को जोड़ने की भावना का जीवन बनना चाहिए। जहाँ हम न केवल अपने लिए, बल्कि अपनों के लिए श्रेष्ठ बनें — यही सच्चा बचपन का मूल्य है। यही वह ऊर्जा है जो जीवन को सार्थक बनाती है।
7 months ago | [YT] | 2
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SATYA SIDDHANT
# **पतिपत्नी का आदर्श संबंध: निष्ठा, आत्मीयता और कर्तव्यबोध की अभिव्यक्ति**
पति-पत्नी का संबंध केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं, बल्कि आत्मिक निष्ठा, स्वेच्छा से किया गया त्याग, और गहन भावनात्मक समर्पण का प्रतीक है। यह सत्य है कि कोई भी पूर्णतया उत्तम नहीं होता, परंतु यह साथ ही वह साधन है जिससे दोनों जीवन के कर्तव्यों की पूर्ति कर सकते हैं।
हम एक-दूसरे के लिए केवल भावुक नहीं, कर्तव्यबद्ध हैं — यह सम्मान का रिश्ता है।
हम एक-दूसरे में स्वयं को देखते हैं — और इस दर्पण के प्रतिबिंब में आत्मा की एकरूपता अनुभव करते हैं।
अब हम दोनों साथ में सुख-दुख को समझने वाले नहीं, बल्कि उन्हें साथ-साथ जीने वाले होंगे।
### **एक आत्मिक प्रतिज्ञा**
* मेरी आत्मा आपसे जुड़ चुकी है; यदि आपको दुख होगा तो वह मुझे भी पीड़ा देगा।
* आज से हम यह निश्चित करते हैं कि हम आपके श्रेष्ठ कार्यों में आपके सहयोगी बनेंगे।
* आपके जीवन के श्रेष्ठ पलों को हम स्मरण कराते रहेंगे, जिससे आप सदा उन्नति के मार्ग पर अग्रसर रहें।
* हम सत्य के व्रतबद्ध हैं — और इस सत्य की कला से अपने अभिनय को समाज में श्रेष्ठ आदर्श बनाएंगे।
### **एक साझा जीवन-दृष्टिकोण**
आपका आगमन हमारे जीवन में तीव्र गति और स्पष्ट दिशा लेकर आया है।
हमारा यह चरित्र समाज को सिखाएगा कि वैवाहिक संबंध केवल पारंपरिक व्यवस्था नहीं, बल्कि आदर्श चरित्र और सामाजिक सौंदर्य का माध्यम है।
हम समाज के कल्याण हेतु संघर्ष करेंगे — क्योंकि अपने लोगों के लिए, कभी-कभी अपने लोगों से भी लड़ना पड़ता है।
हम केवल साथ रहने के लिए नहीं, बल्कि एक-दूसरे को समाज के हित में आगे बढ़ाने के लिए एक हुए हैं।
हमारी प्रार्थना यही रहेगी कि आप सदैव उन्नति करें, और ईश्वर आपके जीवन को आलोकित करें।
### **कर्तव्य और पारस्परिक समझ**
* हम एक-दूसरे की बातों को पूर्ण स्वतंत्रता के साथ रखेंगे।
* कोई तीसरा व्यक्ति हमारे बीच हस्तक्षेप नहीं करेगा, परंतु विद्वानों और बड़ों के सुझावों का सदैव सम्मान होगा।
* हमारा प्रथम कर्तव्य है — एक-दूसरे के विचारों से प्रभावित होना, उन्हें समझना, और साझा दृष्टिकोण विकसित करना।
* हम किसी भी परिस्थिति में आपके लिए संघर्ष करेंगे — यहाँ तक कि अपने प्राणों को भी दांव पर लगाएंगे।
### **गोपनीयता और आत्मीयता**
* हम अपने विषय में कोई बात गुप्त नहीं रखेंगे।
* आप बिना संकोच और निर्भय होकर अपनी हर बात हमसे कह सकती हैं।
* यह संबंध केवल प्रीतिपूर्ण नहीं, आत्मबलि का प्रतिरूप है।
* आप हमारे आत्म-प्राणप्रिय हैं — हमने आपको चुना है, और यह निर्णय भविष्य में कोई नहीं बदल सकता।
### **ईश्वर साक्षी वचन**
हम यह सब वचन ईश्वर, अग्नि और आत्मा को साक्षी मानकर देते हैं — कि हमारा यह संबंध अब एक आंतरिक प्रतिज्ञा है।
अब हमारे बीच केवल वह अग्नि — ईश्वर — मेल मिलाप का माध्यम है।
ईश्वर हमारे इस संबंध को सदा उच्च मार्ग की ओर अग्रसर करे।
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📘 **इस लेख को संग्रहणीय क्यों माना जाए?**
* यह लेख आधुनिक और पारंपरिक दोनों मूल्यों का संतुलन प्रस्तुत करता है।
* इसमें आध्यात्मिकता, नैतिकता और व्यावहारिकता का सुंदर समन्वय है।
* यह विवाह को केवल सामाजिक अनुष्ठान नहीं, एक जीवन साधना के रूप में प्रस्तुत करता है।
@SATYASIDDHANTGYANARJAN
7 months ago | [YT] | 2
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SATYA SIDDHANT
"प्रेम का स्वरूप: आत्मिक आलोक की अभिव्यक्ति" को एक संग्रहणीय साहित्यिक रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ — उच्चकोटि की हिंदी, स्पष्ट अनुच्छेद विन्यास और विषय-संगति के साथ:
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## प्रेम का स्वरूप: आत्मिक आलोक की अभिव्यक्ति
### 1. प्रेम का आत्मिक आलोक
प्रेम एक आत्मिक ऊर्जा है, जो दो हृदयों के मध्य गूढ़ समझ के आधार पर उत्पन्न होती है। यह किसी बाह्य संकेत या शब्द की अपेक्षा नहीं रखती, अपितु भावों की अंतरंग तरंगों से संप्रेषित होती है।
जैसे तुम्हारी कोकिल-कंठ मधुर वाणी मेरे भीतर ऐसे उत्साह का संचार करती है, जो मुझे जड़ता, आलस्य और प्रमाद से मुक्त कर देता है। वह वाणी मेरी निद्रा को भंग करती है, अंधकार को दूर कर ज्योति का आलोक फैलाती है।
न जाने तुम्हारी दृष्टि किस ओर संकेत करती है, जिससे मैं तुम्हारे अंतस के विषाद को पहचान पाता हूँ, तुम्हारी मौन इच्छाओं को समझ पाता हूँ। तुम्हारे श्रवण किस प्रकार सुख के स्पंदनों से आर्द्र होते हैं — यह अनुभव मुझे प्रेरित करता है कि मैं तुम्हारे लिए कुछ करूँ। यही विश्वास का सूत्र बनता है, जिससे तुम मुझ पर भरोसा कर पाती हो।
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### 2. प्रेम में शर्त नहीं, समर्पण हो
प्रेम कोई अनुबंध नहीं, जिसमें नियमों, शर्तों और अधिकारों का बोझ हो। यह आत्मा की सहज अभिव्यक्ति है — जहाँ दोनों हृदय बिना शर्त एक-दूसरे में रम जाते हैं। प्रेम वह उजास है, जो दोनों को एक समान आलोकित करता है।
प्रेम का प्रयोग स्वहित के लिए नहीं किया जाना चाहिए। न किसी की स्थिति का लाभ उठाना उचित है, न उसकी सामाजिक अवस्था को निम्नतर प्रदर्शित करना। प्रेम में यह आग्रह न हो कि दूसरे को अपनी इच्छा से वस्त्र, स्वरूप या व्यवहार में ढलना चाहिए।
सच्चे प्रेम में चरित्र निर्माण होता है, आत्मबल का विकास होता है। यह मन को संबल देता है — आत्मविक्षिप्तता नहीं, आत्मस्थिरता की ओर ले जाता है।
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### 3. प्रेम की शाश्वतता और सामाजिक स्पंदन
प्रेम सदा विद्यमान रहता है क्योंकि वह सत्य की भाँति सनातन है। उसे केवल पहचाना और सहेजा जाना चाहिए। प्रेम को क्षणिक रूठने या अविश्वास के क्षोभ में तोड़ देना, उसकी आत्मा को नकारना है।
प्रेम स्वयं में वृद्धि करता है। उसके संस्पर्श से अन्य संबंध भी मधुर होते हैं। वह गंगा की निर्मल धारा की तरह अविरल बहता है — उसे सूखने नहीं देना चाहिए। प्रेम हमें अच्छाई और बुराई का भेद कराता है, और विद्या के पथ की ओर अग्रसर करता है।
यह वह पथ है, जिस पर हम समय और दूरी की सीमाओं को पार करते हुए साथ चलते हैं। जब हमने एक-दूसरे का हाथ थामा, तो केवल साथ नहीं, उत्तरदायित्व भी स्वीकार किया। यह अधिकार नहीं, कर्तव्य है।
प्रेम की कसौटी तब होती है, जब कोई एक क्षीण हो जाए — तब दूसरे का साथ छोड़ना नहीं, बल्कि और दृढ़ता से थामे रहना ही सच्चे प्रेम की पहचान है।
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आकर्ष आर्य satya siddhant
8 months ago | [YT] | 5
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