"मैं वैदिक विज्ञान के द्वारा एक अखण्ड, सुखी व समृद्ध भारत के निर्माण की आधारशिला रखने का प्रयास कर रहा हूँ, जिसमें प्रत्येक भारतीय तन, मन, विचारों व संस्कारों से विशुद्ध भारतीय होगा। उसके पास अपना विज्ञान वेदों, ऋषियों व देवों के प्राचीन विज्ञान पर आधारित एवं अपनी भाषा हिन्दी व संस्कृत में होगा। उसे अपने पूर्वजों की प्रतिभा, चरित्र एवं संस्कारों पर गर्व होगा, उसे पाश्चात्य विद्वानों की बौद्धिक दासता से मुक्ति मिलेगी, जिससे लार्ड मैकाले का वर्तमान में साकार हो चुका स्वप्न ध्वस्त हो सकेगा। यह प्यारा राष्ट्र पुनः विश्वगुरु बनकर विश्व को शांति एवं आनंद का मार्ग दिखाएगा।"

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Vaidic Physics

वे अरावली को खाने आ रहे हैं...। अरावली संकट
https://youtu.be/tKZwUqIKDm8

2 days ago | [YT] | 120

Vaidic Physics

🚀 BIG REVEAL ALERT! 🔥🧠✨

🌌 ब्रह्माण्ड का सबसे बड़ा सवाल!

What was before the Big Bang? 🤯💥

बिग बैंग से पहले क्या था?
We’re going THAT deep — Vedic logic × cosmic science! ⚡️🌠

Acharya Agnivrat Ji is about to drop truth bombs that will melt your brain and upgrade your universe.
तैयार हो जाइए — ये सेशन आपके पूरे perspective को reset कर देगा! 🔥🧘‍♂️

📅 Date / तारीख: 20 December 2025
⏰ Time / समय: 4:00 PM IST

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🌟 यदि आपको science, philosophy, Vedas और cosmic सवाल पसंद हैं — DO. NOT. MISS. THIS.

Let’s decode the universe, Gen-Z style. 💫🔥

3 days ago | [YT] | 87

Vaidic Physics

अक्षरों से कैसे बना ब्रह्माण्ड । ब्राह्मण ग्रन्थों का वैज्ञानिक स्वरूप
https://youtu.be/l-2eJyPwDzk

1 week ago | [YT] | 80

Vaidic Physics

आलसी नागरिक भी राष्ट्र के लिए भार

प्रति दह यातुधानान् प्रति दह किमीदिन:।
प्रतीची: कृष्णवर्तने सं दह यातुधान्य:॥ [अथर्ववेद १.२८.२]

इसका देवता चातन है। यह पद ‘चते याचने’ धातु, जो वेद में चातयतिर्नाशने (निरु.६.३) के अनुसार हिंसा अर्थ में भी प्रयुक्त होती है, से व्युत्पन्न होता है। इसका छन्द अनुष्टुप् होने से इसके दैवत व छान्दस प्रभाव से सृष्टि में तीव्र हिंसक क्रियाओं में वृद्धि होती है। विभिन्न छेदक-भेदन रश्मियाँ अनुकूलतापूर्वक कार्य करने में समर्थ होने लगती हैं। इसका भाष्य इस प्रकार है—

आधिदैविक भाष्य—
तीव्र भेदक त्रिष्टुप् एवं शक्वरी आदि छन्द रश्मियाँ (यातुधानान्) [यातुधाना हेति: (मै.२.८.१०), हेति: वज्रनाम (निघं.२.२०), हेतिर्हन्ते: (निरु.६.३)] विभिन्न वज्र रश्मियाँ के (प्रति, दह) प्रति दहनशील होने लगती हैं। (किमीदिन:, प्रति, दह) [किमीदिन: = किमीदिने। किमिदानीमिति चरते किमिदं किमिदमिति वा पिशुनाय चरते, पिशुन: पिंशते: विपिंशतीति (निरु.६.११)] उस समय उत्पन्न विभिन्न संयोज्य कणों को प्रकाशित करती तथा उनकी ऊष्मा को समृद्ध करती हैं। (प्रतीची:, यातुधान्य:, कृष्णवर्तने) [प्रतीची = अभिमुखी (निरु.३.५)] वे तीव्र भेदक रश्मियाँ अपने मार्ग में आने वाली वज्र रश्मियाँ को आकर्षण बल केे व्यवहारों में (सम्, दह) ऊष्मा प्रदान करती हैं।

भावार्थ— इस ब्रह्माण्ड में विद्यमान तीक्ष्ण रश्मियाँ असुर पदार्थ (डार्क एनर्जी) को नष्ट वा नियन्त्रित करने के लिए वज्र रश्मियों को तीव्र ऊष्मा से युक्त करती हैं। वे विभिन्न आयन्स वा एटम्स की ऊर्जा में वृद्धि करती तथा वज्र रश्मियों को अधिक ऊष्मा से समृद्ध करती हैं। वज्र रश्मियाँ उन रश्मियों को कहते हैं, जो हानिकारक पदार्थों को नष्ट करती तथा सूक्ष्म कणों को एकत्र करके उन्हें परस्पर संयुक्त करने में सहायक होती हैं। इन सब क्रियाओं से बाधक पदार्थ (डार्क मैटर) छिन्न-भिन्न होकर संयोग व वियोग की प्रक्रिया तथा ऊष्मा में वृद्धि होती है।

Summary: The Raśmi present in this universe energize the Vajra Raśmis with intense heat in order to destroy or control the Asura Padārtha (Dark Energy). They increase the energy of various ions or atoms and enrich the Vajra Raśmis with greater heat. Vajra Raśmis are those Raśmis that destroy harmful substances and help gather subtle particles and combine them with one another. Through all these actions, the obstructing substance is shattered, leading to processes of combination and separa-tion, along with an increase in heat.

आधिभौतिक भाष्य—
दुष्ट अपराधियों को दण्डित करने वाला राजा (यातुधानान्, प्रति, दह) राक्षसी स्वभाव वाले अपराधियों के प्रति अति कठोर व्यवहार वाला होवे, जिससे उन अपराधियों की अपराधवृत्ति नष्ट हो जाए अथवा उन अपराधियों को ही मृत्यु दण्ड देवे। (किमीदिन:, प्रति, दह) ‘अब क्या है’, ‘यह क्या है’ आदि सदैव नकारात्मक प्रश्न करने परन्तु पुरुषार्थ कुछ न करने वाले प्रमादी वा चुगली करने वालों को भी राजा दण्डित करे। (यातुधान्य:, प्रतीची:, कृष्णवर्तने) [प्रतीची: = प्रतिकूलं वर्तमाना: (म.द.ऋ.भा.३.१८.१)] पापान्धकार में लोकहित केे प्रतिकूल वर्तमान राक्षसी प्रवृत्ति वाले दुष्टों (सम्, दह) केे प्रति दहनशील होवे अर्थात् उन दुष्टों को कठोर दण्ड देने वाला होवे।

भावार्थ— जो व्यक्ति दूसरों का धन हरण करते, उन्हें पीड़ा पहुँचाते वा उनकी हत्या करते हैं, राजा को चाहिए कि ऐसे दुष्टों को कठोर दण्ड और आवश्यक होने पर मृत्यु दण्ड देवे। जो व्यक्ति आलसी व प्रमादी रहकर सदा सन्देह में डूबे रहते तथा दूसरों को भी भ्रमित करते हैं तथा जो पापपंक में डूबे एक-दूसरे की चुगली करते व राष्ट्र केे नागरिकों को भ्रमित करके अराजकता उत्पन्न करते हैं, उन सबको कठोर दण्ड देना चाहिए। जिस राष्ट्र में अपराधियों को कठोर दण्ड नहीं दिया जाता, उस राष्ट्र की प्रजा दारुण दु:ख उठाती है और दण्ड न देने वाले राजा व अपराधी दोनों पाप के भागी होते हैं। इसलिए अपराधियों को अपराध के अनुसार दण्ड देना अनिवार्य है। ध्यान रहे कि आलसी नागरिक भी राष्ट्र के लिए भार रूप ही होते हैं।

Summary: A person who seizes the wealth of others, causes them suffering, or kills them should be given strict punishment by the king, and if necessary, the death penalty. Those who remain lazy and negligent, always drowning in doubt, who confuse others, who indulge in sinful conduct, who gossip about one another, and who mislead the citizens to create disorder, should also receive strict punishment. A nation where criminals are not punished severely brings great suffering to its people, and both the king who fails to punish and the criminal become sharers of sin. Therefore, it is essential to punish offenders according to their crimes. Remember that lazy citizens are also a burden to the nation.

आध्यात्मिक भाष्य—
(यातुधानान्, प्रति, दह) योगसाधक को चाहिए कि वह अपने अन्दर आने वाले राक्षसी व हिंसक विचारों को साधना केे द्वारा जलाकर नष्ट कर दे। इसी प्रकार कुशल चिकित्सक को चाहिए रोगाणुनाशक औषधियों केे द्वारा शरीर केे साथ-साथ वायु व जल आदि में विद्यमान रोगाणुओं व विषाणुओं को पूर्णत: नष्ट कर दे। (किमीदिन:, प्रति, दह) जो कुविचार सात्त्विक विचारों वा मन की एकाग्रता को भंग करते हैं, साधक को चाहिए कि उन कुविचारों को अपने सतत अभ्यास एवं वैराग्य केे द्वारा दग्ध कर दे। इसी प्रकार चिकित्सक को चाहिए कि वह मन की चंचलता, भ्रम व अवसाद आदि को अपनी उत्तम औषधियों तथा पथ्यापथ्य के उचित निर्देशन के द्वारा दूर करने का यत्न करे अर्थात् उस मानसिक रोग को नष्ट कर दे। (यातुधान्य:, प्रतीची, कृष्णवर्तने) जो वृत्तियाँ योगपथ केे मार्ग केे प्रतिकूल वर्तमान होकर अज्ञान वा पापान्धकार की ओर ले जाने वाली होती हैं, उन अनिष्ट आसुरी वृत्तियों (सम्, दह) केे प्रति योगी को दहनशील होना चाहिए अर्थात् उन्हें अपने आत्मिक तेज से दग्ध कर दे। इसी प्रकार वैद्य को चाहिए कि रोगी केे शरीर में जो भी हानिकारक जीवाणु हों, उन्हें उचित आहार-विहार व औषधियों केे द्वारा नष्ट कर दे।

भावार्थ— प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि वह साधना के द्वारा अपने मन में उठने वाले कुविचारों को दूर करने का निरन्तर प्रयत्न करता रहे। इसी प्रकार योग्य वैद्य अपने रोगी तथा उसके निकटवर्ती वातावरण को भी जीवाणु मुक्त करने का प्रयत्न करे। मन में उठने वाले कुविचार अच्छे विचारों को मन में आने से रोकते हैं तथा मन की एकाग्रता को भंग करते हैं। इसे निरन्तर अभ्यास, वैराग्य तथा सात्त्विक भोजन आदि के द्वारा दूर किया जा सकता है। योगी इन सभी विचारों व कुसंस्कारों को अपने आत्मिक तेज के द्वारा नष्ट कर दे।

Summary: Every person should constantly strive through discipline to remove the negative thoughts that arise in the mind. In the same way, a competent physician should try to free the patient and the surrounding environment from harmful germs. The negative thoughts that arise in the mind prevent good thoughts from entering and disturb concentration. These can be removed through regular practice, detach-ment, and pure food. A Yogi destroys such thoughts and negative impressions with his inner spiritual strength.

नोट— इस भाष्य की तुलना अन्य विद्वानों द्वारा किए गए भाष्यों से करके अवश्य देखें।

सुन वेदों में बहती है, एक अमृत की धारा,
जिसने पिया ये अमृत, उसने जन्म सँवारा ।

वो ही तो है महाज्ञानी, सब उनकी मेहरबानी,
अब भी छोड़ो नादानी, सुन वेद की अमृत वाणी।।

ये जीवन तो एक दिन जाना है,
लौट के नहीं फिर आना है...

भाष्यकार— आचार्य अग्निव्रत
प्रमुख, वैदिक एवं आधुनिक भौतिकी शोध संस्थान
(श्री वैदिक स्वस्ति पन्था न्यास द्वारा संचालित)

1 week ago | [YT] | 330

Vaidic Physics

व्याकरण या विज्ञान l क्या केवल व्याकरण से वेद समझे जा सकते हैं?
वेदोक्त सृष्टि कथा (The Story of Creation)

आर्ष ग्रन्थों, वेद वा ब्राह्मण आदि के अध्ययन की सही पद्धति क्या है? क्या केवल पाणिनीय व्याकरण (या किसी भी व्याकरण) के आधार पर इन गूढ़ और गहन ग्रन्थों के वास्तविक अर्थ को समझा जा सकता है? यह वीडियो उन सभी जिज्ञासुओं के लिए है, जो वैदिक ज्ञान और विज्ञान को उसके मूल स्वरूप में समझना चाहते हैं और आधुनिक व्याख्याओं की सीमाओं से परे जाना चाहते हैं।

आप इस विषय पर क्या सोचते हैं? क्या वेद और ब्राह्मण ग्रन्थ को समझने के लिए मात्र व्याकरण काफी है? हमें कमेंट करके बताएं!

वैदिक विज्ञान के गूढ़ रहस्यों को जानने के लिए Vaidic Physics चैनल से जुड़े रहें।

https://youtu.be/e_5IgO8hH1Q

1 week ago (edited) | [YT] | 90

Vaidic Physics

दुर्बल सेना कैसे परास्त करे प्रबल शत्रु को

पुत्रमत्तु यातुधानी: स्वसारमुत नप्त्यम्।
अधा मिथो विकेश्यो विघ्नतां यातुधान्यो वितृह्यन्तामराय्य:॥ [अथर्ववेद १.२८.४]

इस मन्त्र का देवता चातन एवं छन्द पथ्यापंक्ति होने से इसके दैवत व छान्दस प्रभाव से विभिन्न भेदन-छेदन क्रियाएँ उचित रूप से विस्तृत तथा परिपक्व होने लगती हैं। इसका भाष्य इस प्रकार है—

आधिदैविक भाष्य—
(यातुधानी:) [यहाँ यातुधानी पद का अर्थ ऐसी वज्र रश्मियाँ है, जो गमन करते हुए कणों को रोक कर उन्हेें यजन क्रियाओं के लिए प्रेरित करती हैं। वे वज्र रश्मियाँ (पुत्रम्, अत्तु) [पुत्र: = पुत्रो वै वीर: (श.३.३.१.१२)] प्राणा वै दशवीरा: (श.१२.८.१.२२)] निकटवर्ती विभिन्न प्राण रश्मियों को अवशोषित करने लगती हैं। यहाँ लट् लकार को लोट् छान्दस प्रयोग है। इसके लिए इस छन्द रश्मि को उत्पन्न करने वाली ऋषि रश्मियाँ वज्र रश्मियों को प्राण रश्मियों को अवशोषित करने के लिए प्रेरित करती हैं। (उत, स्वसारम्) [स्वसा = सु असा स्वेषु सीदतीति वा (नि.११.३२) स्वसार: = अंगुलिनाम (निघं.२.५)] और वे वज्र रश्मियाँ स्वसा अर्थात् फोटोन्स वा कणों केे अन्दर अच्छी प्रकार विद्यमान रश्मियों तथा (नप्त्यम्) [नप्त्यम् = नप्ता = न पततीति (उ.को.२.८५)] उनसे उत्पन्न ऐसी सूक्ष्म रश्मियों, जो विभिन्न असुर रश्मियों के सूक्ष्म प्रहार से विचलित नहीं होतीं, को भी अवशोषित कर लेती हैं। (अधा, विकेेश्य:, मिथ:) यहाँ ‘अध:’ के स्थान पर ‘अधा’ पद का प्रयोग छान्दस है। इसकेे अनन्तर वे विभिन्न प्रकार की बिखरी हुई रश्मियों वाली वज्र रश्मियाँ परस्पर (विघ्नताम्) एक-दूसरे को विशेष रूप से नष्ट वा निष्क्रिय कर देती हैं। (यातुधान्य:) वे वज्र रश्मियाँ (अराय्य:) एक-दूसरे को किसी भी प्रकार की ऊर्जा प्रदान नहीं करती हैं, बल्कि सभी अपनी-अपनी ऊर्जा तथा निकटस्थ प्राणादि रश्मियों से ऊर्जा प्राप्त करके अपने कार्य सिद्ध करती हैं। (वितृह्यन्ताम्) वे वज्र रश्मियाँ अपना कार्य सिद्ध करने के उपरान्त स्वयं एक-दूसरे पर आघात करके नष्ट हो जाती हैं।

भावार्थ— विभिन्न वज्र रश्मियाँ जहाँ कणों के संयोग में बाधक पदार्थों को नष्ट करती हैं, वहीं संयोज्य कणों को आकर्षित करके उन्हें संयुक्त होने में सहयोग भी प्रदान करती हैं। वे वज्र रश्मियाँ आकाश में सर्वत्र भरे हुए वायु तत्त्व (वर्तमान भाषा में वैक्यूम एनर्जी) में विद्यमान कुछ प्राण रश्मियों को अवशोषित करके अपनी ऊर्जा को समृद्ध करती रहती हैं। ये वज्र रश्मियाँ विभिन्न कणों एवं फोटोन्स में विद्यमान ऊर्जा को भी अवशोषित कर लेती हैं, इससे उनकी ऊर्जा में और अधिक वृद्धि होने लगती है। इससे वे ऊर्जा से और भी अधिक समृद्ध हो जाती हैं। तब वे संयोज्य कणों के मध्य विद्यमान बाधक ऊर्जा (वर्तमान भाषा में इसे डार्क एनर्जी भी कह सकते हैं) को नष्ट करके उन संयोज्य कणों को परस्पर संयुक्त होने में सहयोग करती हैं। वे वज्र रश्मियाँ परस्पर एक-दूसरे को ऊर्जा का कोई आदान-प्रदान नहीं करतीं। संयोग क्रिया सम्पन्न होने अथवा बाधक पदार्थ के नष्ट होने के उपरान्त वे वज्र रश्मियाँ स्वयं अपना अस्तित्व खो देती हैं अर्थात् वे वायु तत्त्व में ही विलीन हो जाती हैं। इस प्रकार उनकी सम्पूर्ण ऊर्जा संयोग व भेदन कार्य में ही काम आ जाती है।

Summary: Where different Vajra Raśmis destroy the obstructing substances in the combination of particles, they also attract the combinable particles and assist them in uniting. Those Vajra Raśmis keep enriching their energy by absorbing some Prāṇa Raśmis present in the Vāyu Tattva, which is filled throughout the space. These Vajra Raśmis also absorb the energy present in different particles and photons, due to which their energy increases even more. This makes them even more enriched with energy. Then they neutralize the obstructing energy present between the combinable particles and help those particles unite with each other. Those Vajra Raśmis do not exchange any energy with one another. After the completion of the combination process or the destruction of the obstructing substance, those Vajra Raśmis lose their existence, meaning they dissolve into the Vāyu Tattva itself. In this way, their entire energy is used only in the process of combination and penetration.

आधिभौतिक भाष्य—
युद्ध के समय धर्मात्मा राजा अधर्मी शत्रु सेना पर ऐसे मोहिनी अर्थात् भ्रामक अस्त्र का प्रहार करे, जिससे (यातुधानी:) राक्षसी वृत्ति की वह शत्रु सेना (पुत्रम्, अत्तु) अपने ही वीरों को नष्ट करना प्रारम्भ कर दे। (स्वसारम्, उत, नप्त्यम्) और वह सेना अपनी अग्रणी पंक्ति, जो प्रत्येक आक्रमण केे समय अंगुलियों के समान सबसे अग्रणी होकर प्रथम प्रहार करती है, को भी नष्ट करना आरम्भ कर दे। इसके साथ ही वह अपने उन योद्धाओं, जो युद्ध में सदा अविचल डटे रहते हैं, को भी नष्ट कर दे। (अधा, विकेश्य:, मिथ:, यातुधान्य:, विघ्नताम्) [अधा = अध: = न धावतीत्यूर्ध्वगति: प्रतिषिद्धा (निरु.३.११) केशी = केशीदं ज्योतिरुच्यते (निरु.१२.२६)] वे आगे न बढ़ती हुई सेनाएँ उस मोहिनी अस्त्र, जो अन्धकार उत्पन्न करने के साथ-साथ शत्रु को भ्रमित भी करता है, केे मोहान्धकार से ग्रस्त होकर परस्पर एक-दूसरे का ही नाश करने लग जाएँ। (अराय्य:, वितृह्यन्ताम्) वे शत्रु सेनाएँ वा उनकी टुकड़ियाँ परस्पर एक-दूसरेे का सहयोग न करती हुई एक दूसरेे को ही पीड़ा देने लगें, ऐसा वार करना चाहिए।

भावार्थ— जब दुष्ट शत्रु सेना प्रबल हो और छल-कपट का युद्ध कर रही हो, तब बुद्धिमान् धार्मिक सेनापति को चाहिए कि वह उसके साथ माया युद्ध ही करे। वह ऐसे मोहक अस्त्रों, जो अन्धकार को प्रकट करने वाले हों, का प्रयोग करे कि शत्रु सेना केे वीर योद्धा भ्रमित होकर एक-दूसरे को ही नष्ट करने लग जाएँ। वे अपनी अग्रिम पंक्ति केे योद्धाओं और युद्ध में अविचल लड़ सकने में समर्थ योद्धाओं को ही शत्रु समझ कर उन्हेें ही नष्ट करने लगें। उस अस्त्र केे प्रभाव से शत्रु सेना की टुकड़ियाँ मोहान्ध होकर एक-दूसरे से ही लड़ने लग जाएँ और वह सेना एकजुट न रहकर परस्पर लड़कर नष्ट हो जाए। इसी प्रकार दुर्बल सेना भी सबल सेना को पराजित कर सकती है।

Summary: When the wicked enemy army is strong and fighting with deceit, then the wise and righteous commander should also wage a strategic war. He should use such illusionary weapons that reveal darkness, so that the brave warriors of the enemy army become confused and start destroying each other. They should mistake their own frontline fighters and warriors capable of fighting steadily in battle as the enemy and begin to destroy them. Under the effect of that weapon, the enemy divisions, blinded by delusion, start fighting among themselves, and that army, instead of staying united, destroys itself by mutual conflict. In this way, even a weak army can defeat a strong army.

आध्यात्मिक भाष्य —
(यातुधानी:) मनुष्य की दुष्ट वृत्तियाँ (पुत्रम्, अत्तु) उसके प्राण-बल को नष्ट कर देती हैं अर्थात् पाप वृत्तियाँ मनुष्य के बल को क्षीण कर देती हैं। (स्वसारम्, उत, नप्त्यम्) वे पापवृत्तियाँ उस व्यक्ति के ज्ञान-प्रकाश में रमण करने वा योग मार्ग में अविचल रहने वाले विचारों को भी खा जाती हैं अर्थात् ऐसे विचारशील साधकों के मन की एकाग्रता में बहुत बाधा उत्पन्न करती हैं। (अधा, विकेश्य:, मिथ:, विघ्नताम्) इसके अनन्तर विशेषरूप से प्रकाशित हितकारिणी वृत्तियाँ परस्पर एक-दूसरे को प्राप्त होती तथा असुरवृत्तियों को नष्ट कर देती हैं। (यातुधान्य:, अराय्य:, वितृह्यन्ताम्) इस प्रकार उन सद् वृत्तियों के कारण दुष्ट वृत्तियाँ मनुष्य को दु:ख न देते हुए स्वयं नष्ट हो जाती हैं।

भावार्थ— मनुष्य के मन में उठने वाले कुविचार मनुष्य के शारीरिक, मानसिक व आत्मिक बल तथा ज्ञान व मन की एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं। उधर सद् वृत्तियाँ परस्पर एक-दूसरे को प्राप्त होती हुई असुर वृत्तियों को नष्ट कर देती हैं। इस प्रकार वे कुविचार सद् वृत्तियों के कारण मनुष्य को दु:ख न दे पातीं और स्वयं नष्ट हो जाती हैं।

Summary: The evil thoughts that arise in a person’s mind destroy a person’s physical, mental and spiritual strength, as well as knowledge and concentration of mind. On the other hand, good tendencies, by supporting one another, destroy the demonic tendencies. In this way, because of these good tendencies, the evil thoughts cannot cause suffering to a person and are themselves destroyed.

नोट— इस भाष्य की तुलना अन्य विद्वानों द्वारा किए गए भाष्यों से करके अवश्य देखें।

सुन वेदों में बहती है, एक अमृत की धारा,
जिसने पिया ये अमृत, उसने जन्म सँवारा।

वो ही तो है महाज्ञानी, सब उनकी मेहरबानी,
अब भी छोड़ो नादानी, सुन वेद की अमृत वाणी।।

ये जीवन तो एक दिन जाना है,
लौट के नहीं फिर आना है...

भाष्यकार— आचार्य अग्निव्रत
प्रमुख, वैदिक एवं आधुनिक भौतिकी शोध संस्थान
(श्री वैदिक स्वस्ति पन्था न्यास द्वारा संचालित)

1 week ago (edited) | [YT] | 254

Vaidic Physics

वेद विज्ञान के ही ग्रन्थ हैं l माननीय डॉ. सत्यपाल सिंह जी
https://youtu.be/8CoHun12b9w

1 week ago | [YT] | 105

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कैसे हुई भूमि से मनुष्य की उत्पत्ति l डॉ मधुलिका जी आर्या
https://youtu.be/pnQhhMiZLe4

2 weeks ago | [YT] | 71